जन्म लिया बच्चा मुट्ठी में भाग्य बंद करके आता है। बच्चे से कितना भी खुलवाइए, वह इसे खोलता नहीं। केवल पुरुषार्थ से यह भाग्य खुलता है। वास्तव में हर व्यक्ति अपना भाग्य आजमाने अकेला आया है। उसे एक परिवार मिला, कुछ धन वैभव मिला, उम्र के प्रभाव से वह बड़ा होता है, मकान बनाता जमीनें खरीदता, लोगों को नौकर रखता, उनका पेट भरता, कितनों पर हुकूमत दिखाता और कितनों के सामने गिड़गिड़ाता है। पर जाते समय हाथ स्वयं फैल जाते, उंगलियाँ तन जाती हैं, बंद मुट्ठी को खुली लेकर जाता है। मानव जीवन की यही विचित्रता है। इंसान जो भाग्य लेकर आया था, उसे पुरुषार्थ से पाया, आजमाया फिर चल दिया।
यह विचित्र परिवर्तन ही संसार का नियम है, जीवन में इन परिवर्तनो से शरीर ही नहीं बदलता, मन-भाव, सोच-विचार, संकल्प-धारणायें, कामनायें, संकल्पनायें, आवश्यकतायें, योजनायें आदि सब कुछ बदलती हैं। बड़े सौभाग्यशाली लोग होते हैं, जो इन तबदीलीओं को समझ पाते और बदलाओं के बीच अपने को सम्हाल पाते हैं।
भारतीय ऋषियों ने शोध करके बदलती दुनिया व बदलते आयु के बीच मनुष्य को इन बदलावों में सम्हलने के लिए जीवन के चार आश्रम-ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास बनायें और इन्हें जीवन को अमर बना लेने के राजमार्ग का दर्जा दिया।
इन बदलावों के साथ जो मेहनत करते, परिश्रम करते, संतोष पाते। शरीर-मन से काम करते, भावनाओं के साथ पवित्रता अपनाते, ईश्वर-गुरु को अपना हृदय-बुद्धि सौंप कर चलते हैं, वे अंत समय तक हंसते-खिलखिलाते, सुख-संतोष से भरे रहते हैं। इस प्रकार युवावस्था तेजी से सकारात्मक बीतती जाती है। गुरु-ईश्वर से जुड़े व्यक्तियों का जीवन शानदार बीतता है, पर जटिलतायें आती हैं। वैसे व्यक्तियों के साथ जो ईश्वर व गुरु अनुशासन को तोड़ते हैं। इसके बावजूद आयु के साथ मनोदशा का बदलना कटु सत्य है।
ऋषियों एवं स्वास्थ्य विज्ञान के अनुसार मानक अपनाये, तब भी मानसिकता एवं शरीर विन्यास अपने उम्र अनुरूप लक्षण प्रकट करने ही लगते हैं। अतः जरूर होती है कि व्यक्ति आयु के अनुसार संतों-ऋषियों द्वारा निर्धारित मानकों का पालन तो करे ही, साथ ही आयु अनुसार प्रकट होने वाले लक्षणों को ध्यान में रखकर भी सावधान रहे। आयु और जीवनशैली में सामंजस्य बनाये, यही व्यक्ति के स्वस्थ-समुन्नत एवं सुखी जीवन का राज मार्ग है।
विज्ञान सत्य है ‘‘चालीस साल के बाद शरीर में पाचन शक्ति (डाइजेशन पावर) कमजोर होने लगती है। चलते हुए थकान आती है पैर थकते है, घर से बाहर निकलने की कोशिश करने पर पैर रुक जाते हैं। मन दुःखी होता जाता है। कहते हैं इंसान की बढ़ती आयु और सफेदी देते बाल संदेश देते हैं कि अब सुलझने के दिन हैं। जिद्द नहीं, शांति एवं शांत होने का समय है। बावजूद यदि समय के साथ शांत होने की कोशिश नहीं की, तो जन्मों तक बंधे ही रहेंगे। यह संसार के बंधनों से धीरे-धीरे ऊपर उठने का संदेश देने वाली आयु होती है।
वास्तव में पचास वर्ष आते-आते ध्यान थोड़ा संसार में रहे, पर धीरे-धीरे उससे ऊपर भी उठें। सुखी जीवन के लिए यह बड़ी आवश्यकता है। ऐसे में कुछ अभ्यास करें कि भोजन जैसा मिले ले लीजिए। मेरी पसन्द का बने, मुझे यही पहनना है, मेरा कमरा ऐसा हो, मेरी शैया ऐसी हो, मुझे इतने पैसे मिले आदि से ऊपर उठकर, जैसा मिल गया खा ले, जैसी शैया मिल गई सो जाये। परिवार वालों ने जितना ध्यान कर लिया वही ठीक है। समय को जप-तप वाले पुरुषार्थ व सहनशील होने, वाणी को मौन रखने, कम बोलने और संसार की बातों पर बहुत कम ध्यान देने पर लगायें। यह मनुष्यता पाने के पूर्व अभ्यास वाली उम्र है, मनुष्यता पाने के लिए पुरुषार्थ जैसे कि ‘यह मेरी संतान है की अपेक्षा सभी में अपनेपन को देखें। क्योंकि जिन्हें आप ब्लड रिलेशन मानते हैं, जो आपके खून के रिश्ते में बंधे हैं, वह लोग जब काम आते नहीं, तब दुःखी होंगे। शिकायत करेंगे, अतः आयु बढ़ने के साथ संतान की मोह-ममता रखें, पर संतान बड़ी हो गई उनको लायक बना दिया, वे उड़ने लायक हो गये, अपना कार्य खुद करने लगे साथ छोड़ देने में ही भलाई है।
इसके बाद की अवस्था है वानप्रस्थ। कहते हैं जीवन के अंतिम भाग की तैयारी इसी में होती है। वानप्रस्थ अर्थात् घर-परिवार के प्रति वैराग्य एवं लोक के प्रति संवेदनशीलता की आयु है यह। घर में रहकर भी जिस समाज में रह रहे हैं, उस समाज के हित में सोचना। अपनी आवश्यकतायें न्यून करते जाना, हो सके तो अपनी कमाई में आसपास के दुखी-पीड़ितों को भागीदार बनाना। भगवान-गुरु को साझेदार बनाना। सेवा-दान पुण्य में अपनी प्रतिभा, श्रम, समय को लगाना। सबके शुभ कल्याण की कामना करना वानप्रस्थ का उद्देश्य है।
सभी जानते हैं कि जैसे-जैसे आयु बढ़ती है, सारी शक्तियाँ कमजोर पड़ती जाती हैं, जीभ में सारी ताकत आकर बैठ जाती हैं, आदमी बोलता बहुत है। टोका-टाकी करता है, दूसरों को कुछ न कुछ कहेगा ही, लेकिन वानप्रस्थ के प्रयोगों से जुड़े व्यक्ति उस आयु में पहुंचते-पहुंचते संवेदनशील हो जाते हैं। इंसान अपने अंदर आशीर्वाद देने, शुभ भावना बढ़ाने और सबके भल की कामना करते हुए समझ जाता है कि यही रास्ता सही है। खुशी से कहता है कि आगे का समय उम्र के हित के लिये अपनाना है। रिटायरमैंट तक की पूरी की पूरी सही स्थिति बनाने को संकल्पित होता है। जिससे रिटायर होने, बच्चों की शादी हो जाने पर जीवन के उत्तरार्ध को गुरु-ईश्वर आश्रम की सेवा में लगाने के भाव सरलता से जगा सके। जीवन धन्य व्यतीत कर सके।
इसके लिये पहले से छोटी-छोटी योजना बनानी ही चाहिये। जितना रोजी-रोटी कमाने में समय लगाते हैं, उतना सेहत के लिए भी लगायें। मनोरंजन के लिये भी समय निकालें, अच्छी पुस्तक पढ़ें। इस तरह जीवन में ठीक ढंग से प्लानिंग हो तब ही जीवन का आनंद लिया जा सकता है। आज के दौर में जीवन को बहुत ही व्यवस्थित करने की आवश्कता है। इसके लिए भोजन करने बैठे, तो चिंताएं न सतायें हड़बड़ी में आकर भोजन न करें, तनाव में न रहें, अतः सावधान हों भगवान ने जो शक्ति दी, शरीर दिया, शरीर के अंदर इतने सारे रोम छिद्र दिये, इससे पसीना बहाते रहने भक्ति जगाते रहने की कोशिश करते रहना चाहिये। समय का ठीक ढंग से निर्धारण करें, याद रहे हम चैतन्य तत्व हैं, चैतन्य से मिलने आये हैं। मुक्ति पाने, आनन्द लेने, जन्म-जन्मांतरों की तपस्या पूरी करने के लिए आये हैं।
अतः अपनी पात्रता को शुद्ध करते चलें। ऐसा मनुष्य जब सत्तर-अस्सी में पहुंचने पर पहले से अभ्यास किये होने से कैसी भी परिस्थिति आये, दुःखी नहीं होता। वह अंतिम समय तक प्रसन्नचित्त रहता है। क्योंकि इस अवस्था में आकर स्वभाव में जो चीज बसी, वही काम आयेगी। भक्ति में लगे थे, तो वही सारी चीजें निकलने लगती है। अतः बुढ़ापे को संभालने के लिए ईश्वर-गुरु भक्ति का अभ्यास जरूरी है।
छोटे होते हैं तो छोटी चीजें अच्छी लगती हैं, खेल-खिलौने अच्छे लगते हैं। कुछ आयु बढ़ गई तो धन और संसार की वासनायें पसंद आने लगती हैं। लेकिन जैसे-जैसे ऊपर उठते हैं तो लगता कि संसार में ये निरर्थक थीं। ऐसी मनोदशा में उम्र के साथ किया गया सही अभ्यास ही सुख-शांति-आरोग्य दिलाता है।
2 Comments
हरि ओम , बहुत सुंदर विचार हैं पालन होना जरुरी हैं गुरूवर कृपा करेंगे . गुरुदेव महाराज की चरण स्पर्श कोटी प्रणाम.
हरि ओम। गुरुदेव के चरणों में सादर नमन ।
अत्यंत सुंदर एवं शिक्षाप्रद लेख है ,जिसमें इतना सार भरा हुआ है अगर व्यक्ति पूरा का पूरा अपना ले तो गुरुदेव द्वारा जो आशीर्वाद प्रदान किया जाता है वह पूर्ण रुप से फलीभूत हो सकता है।