सम्पत्ति सभी कमाते हैं, जीवन सभी जीते हैं, परन्तु जिसका इस संसार व समाज के लिए अपना कोई योगदान है, उसी का जीवन सफल माना जाता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि इस दुनिया का प्रत्येक प्राणी किसी न किसी रूप में अपना योगदान देकर जीवन को सफल बनाता है। एक छोटी सी चींटी, रेशम के कीड़े से लेकर हाथी जैसा बड़ा प्राणी तक इस दुनिया को कुछ न कुछ अवश्य दे रहा है। रेशम का कीड़ा रेशम बना रहा है, जिससे न जाने कितने लोगों की लाज ढकती है। छोटी सी मधुमक्खी दुनिया को शहद जैसी मिठास दे रही है। ऐसे में हर मानव के समक्ष भी प्रश्न है कि मैं इस दुनिया को क्या दे रहा हूं? तभी इस समाज में उसके होने का कोई मतलब है।
भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि यदि व्यक्ति अपना कोई न कोई योगदान समाज के लिए निर्धारित नही कर पाता, तो उस व्यक्ति का होना न होना बराबर है। प्रकृति के लिए ऐसा व्यक्ति असहनीय हो जाता है, क्योंकि वह अकर्मण्यता को जड़ता मानती है। इसलिए हर व्यक्ति का दायित्व है कि वह अपनी भूमिकायें निर्धारित करे और संसार को कुछ दे सकने की अपनी क्षमता तलाशे। जो इस दिशा में प्रयत्नशील हैं, परमात्मा उसका योगक्षेम वहन करने के लिए संकल्पित है।
विश्व स्तर पर जो भी महान व्यक्तित्व दिखाई देते हैं, उन्होंने समाज को किसी न किसी प्रकार का योगदान अवश्य दिया है। उदाहरणार्थ आज विश्व में अच्छाई की दिशा में काम करने वालों के लिए 6 तरह के नोबेल प्राइज दिये जाते हैं। इसके लिए साइंटिस्ट अलफ्रेड नोबेल जिसने अपनी सम्पूर्ण संपत्ति उठाकर इस दुनिया को बेहतर बनाने में लगे लोगों को नोबेल प्राइज देने के लिए समर्पित कर दिया। आज भी नोबेल प्राइज ही दुनिया का सर्वोच्च पुरस्कार माना जाता है। इसके विपरीत ऐसे भी साइंटिस्ट थे, जिन्होंने परमाणु बम बनाया, जिसके प्रभाव से जापान तबाह हो गया। यह बात भी सच है कि विज्ञान की टेक्नोलॉजी से संसार को बहुत कुछ मिला, इसने दुनिया को आसान भी बनाया, लेकिन भयानक खतरे भी इसी ने उत्पन्न किये और दुनिया को कबीलाई दिशा में ले गये।
इतिहास गवाह है कि प्राचीन काल में कभी कबीलों में लड़ाइयां होती थीं, वे लोग पत्थर के हथियार बनाकर लड़ते थे। तब जिसके पास ज्यादा हथियार थे, वह उतना ही ज्यादा रुतबे वाला माना जाता था। इसप्रकार वह अपने अहंकार को पुजवाता था। वह दूसरे को नसीहत देने के लिए तैयार रहता था, लेकिन वह खुद किसी तरह का पश्चाताप नहीं करता था, खुद सीखने के लिए तैयार नहीं होता था। दूसरे को माफ करने की भावना तो बिल्कुल नही थी। उनकी जड़ता वाली सोच व योगदान न दे पाने की आदत ने उन्हें स्वयं समाप्त कर दिया। इस दृष्टि से आज के तथाकथित हथियारों की तकनीक इजाद करने वाले वैज्ञानिक जड़तावादी मानसिकता वाले राजनेता कबीलाई कहे जायें तो अतिशयोक्ति नहीं।
श्रीकृष्ण भगवान समझाते हैं कि तुम्हारे पास जब तक सेवा-सहायता-औचित्य के प्रति समर्पण की शक्ति नहीं आती, तब तक हर जानकारी व तकनीक व्यर्थ है। अतः प्रत्येक साधन व जानकारी जीवन में कर्मयोग के रूप में परिवर्तित होनी चाहिए। जब मानव समाज के लिए लाभ देने लगे, तो ही उसके जीवन की सार्थकता कही जायेगी, यही कर्मयोग भी है। इसीप्रकार धर्म क्षेत्र जो लोगों में क्रांतिकारी बदलाव के लिए था, जो मंत्र जीवन का रूपांतरण करते थे, वही जब भाग्यवादी कर्मकाण्ड बनकर उलझन व अकर्मण्यता के कारण बनते दिखें। कर्मकांड भाग्यवाद के पर्याय बनकर दुनिया में लोगों को उलझाते दिखें, तो उसे औचित्यपूर्ण कैसे कहा जा सकता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि कोरे कर्मकांडों की दुनियां भी समाज के लिए परमाणु बम का जखीरा ही है।
वास्तव में भगवान श्री कृष्ण के समय में निश्चित कोरे कर्मकांड का जबरदस्त प्रभाव रहा होगा, हालांकि अभी भी समाज में नए-नए रूप धारण करके कर्मकांड फैला है। झाड़-फूंक, टोना-टोटका जैसे दुर्भाग्यपूर्ण स्तर तक फैला कर्मकाण्ड दुखद हैं। आज देश-विदेशों तक तोता भविष्य बताने लगा, बैल पूंछ हिलाकर भविष्य की जानकारी पाने का आधार बनने लगा। लोग मैक्सीको के ओप्पो नाम के ज्वालामुखी की गरम राख पर घुटनों के बल बैठकर मनोकामना पूर्ण करने की प्रार्थना करते हैं। आदमी जमीन में दबी डेड बॉडी के पास जाकर भाग्य जानना चाहता है। यह वितंडावाद ही तो है। आश्चर्य होता है कि कभी दिव्य प्रयोजन पूरा करने वाले कर्मकाण्ड को लेकर आज हम कहां पहुंच गए?
वास्तव में स्पष्ट होता है कि आदमी कर्म से भागना चाहता है, अपनी जिम्मेदारी से भागना चाहता है, अपनी भूमिका से भागना चाहता है। यह सब बड़ा भटकाव है जिंदगी में। जब तक सही राह नहीं पकड़ेंगे, कल्याण नहीं होगा। भगवान श्री कृष्ण ने ईश्वर की वाणी उसकी नई युगीन विवेचना की और बताया कि उद्देश्यपूर्ण वास्तविक कर्म करके ही मानव अपना कल्याण कर सकते है।
इस कर्मकांड से बाहर निकलना होगा। अन्यथा बच्चे वाला जीवन ही बना रह जायेगा। जैसे बच्चे में जानकारी है, पर अनुभूति नहीं होती। जब तक अनुभूति नहीं होगी, तब तक हम लाख अपने को सभ्य कह लें, परन्तु कबीलाई ही हैं। श्रीकृष्ण ने अपने गीता के संदेश द्वारा उस दौर के लोगों को आदिम युग में प्रवेश करने, कबीलाई बनने से बचाने का ही काम किया और इसे तत्कालीन समाज की सबसे बड़ी क्रांति कही जायेगी, क्योंकि इसके बल पर उन्होंने लोगों में उपयोगी बनने का साहस जगाया।