शुद्ध पर्यावरण जीवन को दीर्घजीवी बनाता है, वहीं इसमें घुल रहे प्रदूषण जीवन को विभिन्न प्रकार की मानसिक-शारीरिक विकृतियों एवं रोगों से भर देते हैं। चिकित्सा विशेषज्ञ कहते हैं वर्तमान समय में विभिन्न प्रकार के रोगों का कारण पर्यावरण में पैदा हो रहे विघटन एवं प्रदूषण मुख्य हैं।’’ विश्वभर में पर्यावरण प्रदूषण के अनेक पक्ष हैं, पर जनसंख्या वृद्धि भी पर्यावरण दूषित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। प्रदूषण जहां रोगों को जन्म देता है, वहीं घनी आबादी व जनसंख्या के दबाव से पैदा होने वाली जटिलताओं से पर्यावरण प्रदूषण में भी वृद्धि होती है। अर्थात् मानव के रहन-सहन व आहार विहार आदि के दबाव से वातावरण विक्षुब्ध होने से प्रदूषण की समस्या अधिक जटिल हो जाती है। जिसके प्रभाव घातक होते हैं। ये कुप्रभाव स्वस्थ वायोस्फियर में विषैले यौगिकों की मात्र बढ़ाने वाले भी होते हैं। वैज्ञानिकों ने तो वायु प्रदूषण जैसी समस्या की सम्पूर्ण जिम्मेदारी जनसंख्या की वृद्धि पर ही दे डाली है।
आश्चर्य है कि ‘‘वैश्विक स्तर के अनुसंधानकर्त्ताओं ने लॉस एन्जिल्स जैसे शहरों के विद्यालयों में पढ़ने वाले बच्चों को साहसी खेल खेलने से इस कारण मना किया कि वहां की प्रदूषित वायु से श्वसन में बाधा पड़ती है। इसी तरह जापान की राजधानी टोकियो में ट्रैफिक पुलिस के सिपाही प्रत्येक दो घंटें में ऑक्सीजन टैंक से शुद्ध आक्सीजन ग्रहण करते हैं, ताकि कार्बन मोनोऑक्साइड की विषाक्ता से वह बच सकें। वास्तव में चिकित्सा विशेषज्ञों ने प्रदूषित वायु को ही श्वसन तंत्र के रोगों का महत्वपूर्ण कारण मानते हुए बताया कि दमा, लंग्स कैन्सर से लेकर अनेक ऐसे ही प्राणघातक रोग इसी की देन है।
विशेषज्ञ बताते हैं कि ‘‘निर्धारित मानक के अनुसार मनुष्य सहित सभी जीवित प्राणियों में मरकरी, लेड, आर्सेनिक, कैडमियम आदि का स्तर अत्यंत कम होना चाहिए, जबकि प्रदूषण से इसका स्तर बढ़ जाता है। पारिस्थितिकीय तंत्र में इनकी वृद्धि से प्राणियों का केंद्रीय स्नायुतंत्र प्रभावित होता है, जो बाद में अकालमृत्यु का कारण बनता है।
सघन वृक्षों के अभाव में आज भारत में भी शुद्ध आक्सीजन की कमी गहरी चिंता का कारण बनता जा रहा है। सवा सौ अरब से भी पार देश की जनसंख्या देश के संसाधनों की दृष्टि से काफी अधिक है। बढ़ती आबादी का यह दुष्प्रभाव वातावरण को बुरी तरह प्रभावित कर रहा है। एक रिपोर्ट के अनुसार ‘‘आज वातावरण में विद्यमान शुद्ध ऑक्सीजन की तुलना में प्रति व्यक्ति द्वारा छोड़ी जाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड की मात्र घनत्व अपेक्षाकृत अधिक होता जा रहा है।’’ पर्यावरण-प्रदूषण से रोगों का गहरा संबंध बताते हुए शोधकर्त्ता एथर्नफील्ड ने कहा कि ‘‘सूजन, थाइरॉइड, ड्राई आई और लारग्रंथियों के सूख जाने के पीछे प्रतिकूल पर्यावरण का प्रभाव है। पर्यावरणीय विघटन ने शारीरिक रोगों को ही नहीं, मानसिक रोगों को भी बढ़ावा मिलता है।’’
पर्यावरण प्रदूषण के अन्य कारण भी हैं, पर आक्सीजन का अभाव सम्पूर्ण जीवन पर ही संकट बनकर छाता दिख रहा है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार इन दिनों जल, वायु और मिट्टी का प्रदूषण विश्व भर में 40 फीसदी मौतों के लिए जिम्मेदार है। अस्सी फीसदी संक्रामक रोग जल-प्रदूषण के कारण होते हैं। जल-प्रदूषण का संकट आगे अधिक भयावह होने जा रहा है। जबकि मिट्टी-प्रदूषण से किडनी एवं हृदय रोगों में बढ़ोत्तरी हुई है। इसी प्रकार वायुप्रदूषण की दृष्टि से हवाई अड्डे अपने पास रहने वाले लोगों के लिए गठिया (रूमेटाइठ आथ्राइटिस) रोगों को बढ़ाने में मददगार बन रहे हैं। वहीं मिट्टी-प्रदूषण के प्रभाव से लोगों में संक्रमण और आटो इम्यून रोगों के बढ़ने की आशंका बनी रहती है।
इन सबके बावजूद जनसंख्या-वृद्धि स्वास्थ्य की दृष्टि से कठिन समस्या है। अनुसंधानकर्त्ताओं ने समस्याओं की विविधताओं को देखते हुए जनसंख्या वृद्धि पर अनिवार्य रूप से अंकुश लगाने पर जोर देते हुए कहा कि तभी बीमारी एवं महामारी से जुड़ी समस्याओं का समाधान सम्भव हो सकता है। परन्तु इससे निपटने के लिए जनमानस की व्यापक स्तर पर मनोभूमि तैयार करनी होगी, उन्हें आहार-विहार, रहन-सहन के सुव्यवस्थित तरीके समझाने होंगे। उनके विचारों की शुद्धता एवं जीवन की सात्विकता के लिए उपासनात्मक प्राकृतिक जीवनशैली, सद्साहित्य के स्वाध्याय से जोड़ना होगा। जिससे उनकी सोच बदले और वे समाज व परिवार, राष्ट्रहित में सही निर्णय ले सकें। तब जनसंख्या पर भी नियंत्रण सम्भव बनेगा और संतुलित जनसंख्या से विविध प्रकार के
प्रदूषणों पर अंकुश भी लगेगा, जो आज लोगों के लिए जानलेवा साबित हो रहे हैं।
आइये! हम सब भारतीय सनातन जीवन शैली को अपनायें व्यापक पौध रोपण करें, जनसंख्या नियंत्रण की मनोभूमि अपनायें और विश्वमानवता को महामारियों से बचायें।