परमात्मा की हर रचना योगमय है, हर व्यवस्था में योगानुशासन समाया है। योगानुशासन से ही समाज विकसित होता है। भारतीय सामाजिक व्यवस्था का आधार योगानुशान पर आधारित है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने मानव स्वभाव को ध्यान में रखकर चार वर्णों की रचना की। चारों का अपने-अपने निजस्वभाव में स्थिर रहकर अपने दायित्व का निर्वहन करने हेतु समाज व्यवस्था का यह एक योगानुशासन दिया। वे कहते हैं-
ब्राह्मणोડस्य मुखमासीत् बाहू राजन्यः कृतः।
उरु तदस्य यद् वैश्यः पद्भ्याम् शूद्रोડजायत्।।
अर्थात् जिस समाज का ब्राह्मण अर्थात बुद्धिजीवी अपनी सुख-सुविधाएं त्यागकर समाज के सब वर्गों का कल्याण करने के लिए तत्पर रहे, क्षत्रिय अन्याय को मिटाने के लिए कमर कसे, पूंजीपति वर्ग पूंजी को अपने स्वार्थ के लिए इकट्ठा न करके समाज के गरीब-बेसहारा जरूरतमंद लोगों को सुखी बनाने में लगाये तथा समाज का हर कर्मशील श्रम से जी न चुराता हो उस समाज को योगी समाज कहते हैं। किसी समाज को साकार देवमय स्वरूप हम इसी आधार पर बना सकते हैं। इसके विपरीत यदि सभी अपने अपने दायित्व को तिलांजलि देने लगे, तो समाज बंटेगा, उसकी सामाजिक व्यवस्था में परस्पर वियोग होगा और समस्याएं खड़ी होंगी।
स्वयं मनुष्य शरीर का आंतरिक ढांचा भी योगानुशासित है। मस्तिष्क को ही लें, उसका भी एक योगानुशासन है। मस्तिष्क के अंदर अस्सी करोड़ छोटी-छोटी तंत्रिकाएं हैं, जिनमें हमारी स्मृतियां बसी हुई हैं। कहते हैं इसमें सारी दुनिया की सम्पूर्ण जानकारी व ज्ञान भर दें, उसके बाद भी बहुत बड़ा स्थान खाली रह जायेगा। अनुशासन इस स्तर का कि जो कुछ भी हम इस समाज से ग्रहण कर रहे हैं, उनमें से उसी को अंदर ग्रहण कर पाते हैं, जिस पर हमारा मन टिका होता है। अन्यथा नित्य विस्फोट होता रहे।
अर्थात इंद्रिया उतना ही अंदर भेजती हैं, जिसके साथ मन का योग रहता है, इसके अतिरिक्त को वह बाहर ही छोड़ देती हैं। कान को ही लें, इसका ऐंटिना बहुत सारी आवाजों को पहले ही नजरंदाज कर देता है और जिससे मन प्रभावित होता है, उसी को कान रिकॉर्ड करता है, वही आवाजें वह अंदर भेजता है। अर्थात कानों से सुनी जानेवाली सैकड़ों प्रकार की आवाजें अंदर पहुंचती हैं, उनमें से केवल दो प्रतिशत ही रिकॉर्ड होती हैं, क्योंकि उन्हीं के साथ मन का जुड़ाव रहता है। इसी प्रकार आंख, नाक, त्वचा आदि का है। इन सभी में अद्भुत संतुलन है। यही परमात्मा का विशिष्ट योगानुशासन है।
वास्तव में जीवन व समाज सभी के लिए इस अनुशासन का महत्वपूर्ण स्थान है। जब हम अपने जीवन में योग को स्थान देते, योगमय वातावरण में जीते, योग भाव से संसाधनों का संचयन करते हैं, तो जीवन और समाज सुख-सौभाग्यमय बना रहता है। इसलिए मनुष्य को अपने व्यावहारिक जीवन के हर छोटे-बडे़ पहलुओं में योगानुशासन को स्थान देना चाहिए। योगानुशासन ही हर समस्या का समाधान है। अंतःकरण का भी एक योगानुशासन है। मान लीजिये किसी व्यक्ति से कोई गुनाह हो गया, तो वह व्यक्ति तब तक विक्षिप्त रहेगा, जबतक कि प्रायश्चित नहीं कर लेगा। जब वह अपना गुनाह स्वीकार करके कहेगा कि मुझसे गलतियां हुईं। तो उसका यही साहस योग बन जायेगा। अंतःकरण को झकझोरने वाली यह प्रक्रिया योगानुशासन के बिना असम्भव था।
इसी प्रकार समाज में व्याप्त दुष्टता, अंधविश्वास, रूढ़ियों, जीर्णशीर्ण मान्यताओं आदि को ललकारने की हिम्मत जिनके अंदर जागृत हो, समझना चाहिए कि उसमें योगानुशासन जागृत हो गया। परित्रणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्ः इसके बिना असम्भव है। सज्जनों की रक्षा, सज्जनों का मनोबल बढ़ाने के लिए योगानुशासन का पालन करना पड़ता। योग व्यक्ति को मानव से महामानव बनाने की शक्ति देता है। योगानुशासन के सहारे श्रीकृष्ण षोडश कला के अवतार बने। योगी में ही गुरुत्व प्रकट होता है। कृष्णं वन्दे जगद्गुरुम्, श्रीकृष्ण इसीलिए तो जगत् के गुरु हैं।
भगवान् श्रीकृष्ण जब कहते हैं कि सबसे पहले राग को त्यागो, भय मुक्त बनो, क्रोध को को हटाओ, ज्ञान और तप से अपने को पवित्र करो तब प्रभु का धाम आपके सम्मुख आ खड़ा होगा, तो वे योगरुढ़ होने का संदेश ही देते हैं। जीवन के आंतरिक योगानुशासन के लिए इन रागों से मुक्त होना जरूरी है। इसके बिना साधारण मनुष्य जीवन का निर्वहन भी कठिन है, फिर शांति-मुस्कुराहट भरा जीवन तो और भी असम्भव है, क्योंकि शांति पैदा ही तब होगी, जब इन सभी रागों से मुक्त होकर जीवन की निरन्तरता को हम समझ चुके होते हैं।
कहते हैं जिस तरह इंसान अपने शांति-प्रसन्नता और मुस्कुराहट से भरे हृदय में परमात्मा की कृपा रूपी जीवन फल अपने आप प्रकट कर लेता है। सारे विश्व में अपने प्यार व मुस्कान को फैलाना सामाजिक योगानुशासन का विस्तार ही तो है। इसी से जीवन व समाज दोनों का उत्थान सम्भव है।