यज्ञ करें, यज्ञमय बनें | Sudhanshu Ji Maharaj

यज्ञ करें, यज्ञमय बनें | Sudhanshu Ji Maharaj

यज्ञ करें, यज्ञमय बनें

यज्ञ करें, यज्ञमय बनें

सबके कल्याण के लिए जो भी कर्म हम करते हैं, वे सब के सब यज्ञ हैं। सेवा यज्ञ है, पीड़ा निवारण का कार्य यज्ञ है, रक्तदान यज्ञ है, शुद्ध हवा और जल की व्यवस्था के लिए वृक्षारोपण यज्ञ है, विद्यादान महान यज्ञ है। पतन-निवारण के उत्तम कार्य, जिनमें आपके कोई निहित स्वार्थ नहीं है, विशुद्ध रूप से यज्ञ हैं। पेड़-पौधे, वृक्ष-वनस्पतियां प्राणिमात्र को विशुद्ध प्राणवायु देकर सदैव यज्ञ ही तो करते हैं। तेजोमय सूर्य के कार्य,

बादलों के कार्य, माँ के कार्य, पिता, गुरु की ओर से सतत चल रहे कार्यों में निहित यज्ञभाव कोई कैसे भुला सकता है। वास्तव में प्राणिमात्र को यह यज्ञ करने का दायित्व भगवान ने दिया है। इसलिए हम सबको सतत सेवामय ऐसे उत्तम स्तर के यज्ञ करने चाहिए। वेदों ने यज्ञ को ही सृष्टि का मूल बताया है। ‘अयं यज्ञो विश्वस्य भुवनस्य नाभिः’ यही है।

भारतीय संस्कृति यज्ञ के कारण ही दैवीय संस्कृति कही गयी है। इसलिए देव पुरुष बनने के लिए तुम्हारा भी हर कर्म यज्ञमय बने, तुम एक सफल याज्ञयिक बनो, यह बहुत जरूरी है। यज्ञ का दर्शन अत्यधिक महान है, यदि आप इसे अनुभव कर सकें।

कहते हैं व्यक्ति जब भी हवन करता है, तो उसकी सुगन्ध को समेट कर अपने ही घर में कैद नहीं रख सकता। आहुति देते ही वह हवन धूम्र वैश्विक हो उठता है। मनुष्य, वृक्ष-वनस्पति एवं प्राणीमात्र, निर्जीव-सजीव सबको पवित्र व पोषित करने लगता है। तभी तो कहते हैं-‘‘ अग्नेय स्वाहा’’ अर्थात् पवित्र अग्निदेव के लिए मैं आहुति देता हूं। ‘‘इदं अग्नेय इदं न मम’’ यह आहुति अग्नि के लिए समर्पित है।  इन्द्राय स्वाहा,  प्रजापतये स्वाहा आदि विभिन्न देवताओं को समर्पित आहुतियों के साथ ‘‘इदं न मम’’ अवश्य कहा जाता है। इसका अर्थ है कि प्रत्येक आहुति हमारे व्यक्तिगत के लिए नहीं है, अपितु सम्बन्धित आहुति सर्वव्यापी देव शक्ति के लिए है। परोपकार के लिए है, जनकल्याण के लिए है, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लिए है। यज्ञ की समस्त प्रक्रिया चर-अचर, जीव-जन्तु एवं प्राणिमात्र के लिए है।

इस सब विश्लेषण व प्रयोग का एक ही आशय है कि आप देवपुरुष बनें और इसके लिए यज्ञीय जीवन का आश्रय लें। सुख-शांति-समृद्धि की सुगंधि भी यज्ञ से ही प्राप्त होती है। वेद ‘‘तुम्हारे हर कर्म को हवन बनाना चाहते हैं।’’ यह कार्य अनन्तकाल से चला आ रहा है। सृष्टि की उत्पत्ति का कारण भी यज्ञ है। ‘‘सहयज्ञा प्रजाः सृष्टवा पुरोवाच प्रजापतिः, अनेन प्रसविष्यवमेष वो{स्त्विष्टकामधुक्।’’ अर्थात् प्रजापति ने सृष्टि की रचना की तब उन्होंने यज्ञ किया और प्रजा से कहा कि यज्ञ के द्वारा ही तुम आगे बढ़ सकते हो तथा अपनी उच्च कामनाएं पूरी कर सकते हो। भगवान श्रीकृष्ण भी कहते हैं यज्ञ ही तुम्हारा सर्वश्रेष्ठ कर्म है, यज्ञ ही तुम्हारा कल्याण करेगा। अर्थात अपने कर्म को ‘यज्ञ’ बना लेना, जीवन का एक महान पुरुषार्थ है। इसी में सम्पूर्ण जीवन व ब्रह्माण्ड की मौलिक सुख-शांति-समृद्धि समायी है। तो क्यों न हम सभी यज्ञ करें और यज्ञमय जीवन जियें और प्राणिमात्र को सुखमय बनायें। 

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