भक्ति का अर्थ भगवान में लीन हो जाना , समर्पित हो जाना !भक्ति तो सभी करते हैं अपने अपने ढंग से , सभी मत सम्प्रदाय में अपने तरीके से पूजा पाठ करने का नियम है , परंतु भक्ति का सही अर्थ जान सकना जरूरी भी है और मुश्किल भी !
अधिकतर व्यक्ति वाह्य पूजा यानी कर्मकांड को ही भक्ति का स्थान देते हैं। भजन , पूजन कर लिया, कीर्तन, नृत्य का आयोजन कर लिया – बस समझो भगवान की कृपा के अधिकारी हो गए ।परंतु सत्यता यह नहीं है : जब तक आपका मन पूरी तरह भगवान के चरणों मे लीन न हो जाये – भक्ति की सफलता नही प्राप्त होती !
इसलिए इस गूढ़ रहस्य को जानने के लिए गुरु की शरण आवश्यक है । वह विधि देते हैं , विधान देते हैं, नियम , अनुशासन देते है, अनुशासन खाने का, सोने का, बोलने का, पूजा पाठ का — इतना कुछ वह प्रक्रिया में ढाल देते हैं जो व्यक्ति को सफलता की ओर ले जाता है !
सदगुरु वह ज्ञान तो देते ही हैं जिससे भक्ति में पंख लग सकें, साथ ही अपने तप का बल भी अपने शिष्यों को प्रदान करके उन्हें शुद्ध करते हैं, निखारते हैं, पवित्रता से भरपूर कर देते हैं क्योंकि पवित्रता पहली सीढ़ी है भगवान के द्वार तक जाने के लिए !
प्रत्येक व्यक्ति का अपना स्वभाव होता है, गुरु उस स्वभाव के अनुसार ही वह विधि देते हैं जिससे वह सफल हो सके। किसी को सेवा से, किसी को जाप से, किसी को ध्यान से — वही जानते हैं कि शिष्य को कैसे भगवान से जोड़ना है क्योंकि सभी मार्ग भगवान तक जाते हैं, तरीके अलग अलग हैं !
इसलिए बिना गुरु धारण किये न तो ज्ञान मिलेगा न ही भक्ति – उनको अपना पूर्ण समर्पण कर दो, एक हाथ गुरु पकड़े ओर दूसरा वह भगवान के हाथ मे पकड़ा दें, चलते चलते मंज़िल तक पहुंच जाओगे । कृपा अवश्य होगी और भक्ति सफल होगी- परमात्मा की अनुभूतियाँ भी मिलेंगी ओर दर्शन भी ! चाहिए तो बस पूर्ण श्रद्धा, प्रेम, अटल विश्वास और गहरा समर्पण अपने सदगुरु के प्रति – वह इसलोक में भी सफल करेंगे और उसलोक में भी !