श्रद्धावान लभते ज्ञानं | Atmachintan | Sudhanshu Ji Maharaj

श्रद्धावान लभते ज्ञानं | Atmachintan | Sudhanshu Ji Maharaj

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श्रद्धावान लभते ज्ञानं

• अतिशय प्रेम का दूसरा स्वरुप ही श्रद्धा है । शुद्ध सात्विक तरंगे जब ह्रदय से प्रेषित होती हैं तो श्रधा का रूप धारण कर लेती हैं ।
• प्रेम और श्रद्धा को ना खरीदा जा सकता है ना ही इसको चुराया जा सकता है!
• श्रद्धावाला व्यक्ति ही ज्ञान को प्राप्त करेगा और वही अपने सदगुरु की कृपाओं को पाने का पूर्ण अधिकारी होता है।
• प्रश्न आता है की प्रेम और श्रद्धा को कैसे जाग्रत किया जाए — तो इसका एकमात्र उपाय यही है की मन को पूर्ण रूप से शुद्ध कीजिये, समर्पण का भाव जगाइए , भगवान् के प्रति, अपने सदगुरु के प्रति! तो यह गुण आप में स्वतः ही प्रकट होने लग जायेंगे।
• थोडा नहीं ‘पूर्ण समर्पण’ चाहिए अपने अंदर श्रद्धा जगाने के लिए! !
• श्रद्धा के बिना जीवन मे कुछ भी सम्भव नहीं : अगर श्रद्धा ही नही तो आप अपने लक्ष्य में सफल हो ही नही पाओगे!
• श्रद्धा ही वह सीढ़ी है जो हमें अपने नियमों को पालन करने में, अपने उत्तरदायित्व पूरे करने के लिए हमें प्रोत्साहित करती है , अन्यथा व्यक्ति भटक कर रह जाता है!
• हर व्यक्ति की श्रद्धा अलग अलग जगह टिकी होती है : यदि माँ बाप के प्रति श्रद्धा है तो आप उनकी सेवा करोगे वरना उनकी चारपाई भी भारी लगती है!
• गुरु के प्रति श्रद्धा है तो उनके निर्देशन का दृढता से पालन करोगे : सत्संग कितनी भी दूर हो रहा हो आप समय भी निकालेंगे ओर पहुंचेंगे भी सही!
• इसी प्रकार भगवान में विश्वास ही हमे भक्ति के मार्ग पर आगे लेकर जाता है: अपने श्रद्धा के दीपक को कभी मंद नही पड़ने देना!
• समय के साथ कभी कभी दिए पर राख आ जाती है तो व्यक्ति का मन डांवाडोल होने लगता है परंतु यदि ऐसा लगे तो दौड़कर जाओ अपने गुरु के दर्शन के लिए , उनसे आशीर्वाद मांगो – फिर रास्ता बनेगा और आप अपने संकल्प पर चल पड़ोगे!
• इसलिए अपनी श्रद्धा की लोह को अडोल बनाकर रखना होगा – बढ़ते जाओ बढ़ते जाओ – कृपा अवश्य होगी!

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