बुढ़ापा अपना-अपना | Old age | Sudhanshu Ji Maharaj

बुढ़ापा अपना-अपना | Old age | Sudhanshu Ji Maharaj

Old age Hone

बुढ़ापा अपना-अपना 

भारतीय संस्कृति में जीवन क्रमशः चार चरणों ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास से युक्त है। 25-25 वर्ष अवधि के प्रत्येक चरणों के आधार पर जीवन को 100 वर्ष अवधि का माना गया है। वह भी पूर्ण स्वस्थ, इंद्रियों की समुचित ऊर्जाशक्ति के साथ। चार चरण को चार आश्रम की मान्यता देते हुए हमारे ट्टषियों ने ‘जीवेम शरदः शतम्, पश्येम् शरदः शतम्, श्रृणुयाम शरदः शतम्’ आदि संकल्पों से जोड़ा है। अर्थात् जन्म के साथ ही व्यक्ति में स्वस्थपूर्ण वानप्रस्थ एवं संन्यास की अवधि पूरी करने के भाव उसके अवचेतन मन में डाल दिये जाते थे पालन-पोषण के दौरान, अभिभावक, माता-पिता व गुरु द्वारा। व्यक्ति इसे जीवन ध्येय मानकर पूर्ण भी करता था। संन्यास आश्रम जीवन के तीन आश्रम अर्थात् 25-25 वर्ष के तीन चरण को परिपक्वता के साथ पूर्ण करन के बाद प्रवेश होता था। यद्यपि इस देश में सीधे भी संन्यास धारण करने की अपनी महिमा रही है। पर उसे सदैव आपात धर्म के रूप में ही देखा गया है। सामान्यतः यहां संन्यास के लिए तीनों के उल्लंघन का विधान नहीं था। संन्यास आश्रम को ही बुजुर्गावस्थ में प्रवेश माना जाता था। पर जैसे-जैसे व्यक्तियों ने अपेन जीवन से वानप्रस्थ एवं संन्यास को नजरंदाज करना प्रारम्भ कर दिया, व्यक्ति की स्वाभविक आयु स्वतः कम होती गयी। आज अपने देश में औसत आयु 56 से 60 वर्ष के बीच आकर टिक गयी है। इसीलिए बुढ़ापा भी जल्दी आ जाता है।

वैसे बूढ़ा होना उम्र बढ़ने की एक प्रक्रिया है। सामान्यतः मनुष्य में 20 से 30 वर्ष की आयु तक कोशिकाओं के नवीनीकरण का दौर तेजी से चलता है। इसलिए इस अवधि में शरीर एवं मन दोनों सक्रिय, ऊर्जावान बने रहते हैं। इसके बाद कुछ वर्षों की स्थिरता के साथ मनोदशा परिवर्तन शरीर के कोश में शिथिलता प्रारम्भ हो जाती है। यद्यपि जीवन अवधि के वर्तमान विभाजन की दृष्टि से बुढ़ापा को 60 वर्ष के साथ माना जाता है, पर यदि आहार-पोषण आदि साधने का सही प्रयास एवं खान-पान, सोच में कमी रह गयी, तो शरीर पर इसका प्रभाव 40-45 वर्ष से ही दिखने लगता है। इसलिए व्यावहारिक स्तरपर हर व्यक्ति की बुजुर्गियत अलग-अलग होती है। हमारी परिभाषा बुढ़ापे को तनाव के प्रति प्रतिक्रिया देने की क्षमता में कमी, होम्योस्टेटिक असंतुलन और बीमारियों के बढ़ते खतरे द्वारा पहचानने का दर्शन भी है। ये परिवर्तन मृत्यु तक चलते रहते हैं। कुछशोधकर्ता बुढ़ापे को एक रोग मान कर उम्र पर प्रभाव डालने वाले जीन पर काम करने में लगे हैं। ऐसे लोग वृद्धावस्था को तेजी से दूसरे आनुवांशिक प्रभावों की तरह संभावित उपचार योग्य स्थितियां मानते हैं।

वास्तव में जीवन में उम्र का बढ़ना न रोका जा सकने वाला एक गुण भी है। मनुष्य इस गुण से कहीं अधिक प्रभावित होता है। मनुष्य के अलग कई प्रजातियों में उम्र बढ़ने के बहुत कम संकेत मिले हैं। जीवन आयु अवधि के लिए आनुवंशिक सम्बन्धों का भी प्रभाव पड़ता है। देखा गया है कि कई पशुओं में आहार काफी हद तक जीवन को प्रभावित करता है। विशेष रूप से कैलोरी को 30 से 50 प्रतिशत तक घटा कर, आवश्यक पोषक तत्वों की मात्र को कायम कर के चूहों की जीवन अवधि 50 प्रतिशत तक बढ़ाई भी गई है। जीवन अवधि में उल्लेखनीय वृद्धि तभी होती है, यदि कैलोरी पर नियंत्रण जीवन की शुरुआत से ही आरम्भ कर दिया जाए।

वर्तमान में अनेक दवा कम्पनियां भोजन की खपत को कम किए बिना कैलोरी नियंत्रण से जीवन अवधि पर पड़ने वाले प्रभावों का विकल्प भी ढूंढ़ रही हैं। पर ऐसे अनेक तथ्य भी सामने आये कि दुबला होने से कोई दीर्घायु नहीं होता। इन सबके बावजूद बुढ़ापे को लेकर व्यक्ति की अपनी निजी मान्यता भी बहुत मायने रखती है। इसमें वे परिस्थितियां हैं जो व्यक्ति को कमजोर, हताश, निराश, आशाहीन अनुभव कराती हैं। जो उसके लिए बुढ़ापे का कारण बनती हैं। ये परिस्थितियां कई व्यक्तियों के पास सब कुछ होने के बाद भी उनका मनोबल गिराती हैं, जो बुढ़ापा ही माने।

कुछ संस्कृतियों में उम्र को वर्ष गणना की अपेक्षा व्यक्ति के हावभाव, सोच को लेकर व्यक्त होती हैं। व्यक्तिगत दृष्टि के आधार पर वृद्धावस्था व्यक्ति को मौत के करीब भी लाती है। ज्ञान के संचय, जीवन अस्तित्व की दृष्टि से एक सम्मानजनक जीवन स्तर की स्थिति के रूप में भी बुढ़ापा आंका जाता है। कुछ में संख्यात्मक उम्र महत्वपूर्ण मानी जाती है। जबकि कई लोग जीवन में पड़ावों, व्यस्कता, स्वावलम्बन, शादी, सेवानिवृत्ति, कैरियर की सफलता के आधार पर अपनी आयु आंकते हैं। वहीं पश्चिमी यूरोप और जापान के कई समाजों मेें बूढ़े लोगों को समाज पर पड़ने वाले उम्र के जटिल प्रभाव से आंकते हैं। आज तो भारत में ही स्वास्थ्य सेवा सम्बन्धित भावी आवश्यकताओं प्रभावों की योजना में बुढ़ापा का लक्ष्य होता है। बीमा कम्पनियों में निवेश शुरुआती उम्र में ही करने लगे हैं। जहां एकाकी परिवार है, देखभाल के लिए अपने का सहारा नहीं है। रोगियों के साथ दुर्व्यवहार आदि की विषमताएं जीवन में बुढ़ापा के डर को बढ़ा देता है। बुढ़ापा का आर्थिकी कारण भी होता है। मनोदशा ओर शरीर के आंतरिक तंतुओं पर पड़ने वाले अनेक कष्टकर प्रभाव के आधार पर भी बुढ़ापा का आंकलन किया जा सकता है।

यद्यपि तीस साल की आयु के साथ ही व्यक्ति की कई संज्ञानात्मक प्रक्रियाओं में लगातार गिरावट होती रहती है, यह शारीरिक क्षरण व बुढ़ापा का संकेत ही है। पाया गया कि बुढ़ापे के साथ स्मृति में कई प्रकार की गिरावट आती है, किन्तु सामान्य ज्ञान जैसी शब्दावली परिभाषाओं की क्षमता आम तौर पर बढ़ती रहती है। इसी प्रकार उम्र के साथ अनुभूति में परिवर्तनों को लेकर भी अध्ययन हुएहैं। उम्र बढ़ने के साथ बुद्धिमत्ता में कमी तो पाई गई, पर इसकी दर अलग-अलग होती है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के आधार पर लोगों की अलग-अलग प्रभाव हो सकते हैं।
माना गया है कि कार्य कुशलता की दृष्टि से बुजुर्गियत में जीवन की तनावपूर्ण घटनाओं का सामना करने में विभिन्न कारण सामने आते हैं जैसे सामाजिक सहयोग, धर्म और अध्यात्म, जीवन के संगी साथी, अपने परिवार के स्वजन, समाज में सक्रिय रूप से जुड़ाव, सामाजिक सद्भाव और निजी जीवन में स्वतंत्रता आदि महत्वपूर्ण कारक हो सकते हैं। स्वास्थ्य और जीवन की गुणवत्ता से इनका सम्बन्ध जो है। किसी व्यक्ति के सामाजिक सम्बन्धों पर किसी व्यक्ति का कितना प्रभाव है, यह तत्व सामाजिक सहायता और उसके शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्वास्थ्य के बीच काम करता है और बुढ़ापे को दूर रखने में सहायक बनता है।

इन सबमें महत्वपूर्ण है अपने को लेकर स्वमूल्यांकन। यह विश्वास कि मेरी अपनी सेहत किस स्तर तक शानदार, ठीक या खराब है? यह पक्ष व्यक्ति को बूढ़ा होने से बचाते में मदद करता है। आश्चर्यजनक बात यह भी है कि भावनात्मक अनुभूतियां उम्र की सक्रियता सुधारने में मदद करता है। बूढ़े अपनी भावनाओं को बेहतर ढंग से नियंत्रित कर वयस्कों की तुलना में कहीं कम नकारात्मक प्रभाव अनुभव करते हैं। अपने ध्यान और स्मृति के प्रति सकारात्मक भाव बनाये रखते हैं। यह उन्हें प्रसन्नता जन्य अनुभूति से जोड़ता और ऊर्जावान रखता है। यद्यपि भारत की मनोदशा इन सबसे मिलीजुली है। फिर भी आज भी अधिकांश लोग ‘जीवेम शरदः शतम्’ की अवधारणा के साथ अंदर से उत्साहित बने रहकर बुजुर्गियत भरे जीवन में भी उल्लास पूर्ण अनुभूति करते हैं। यहां के पर्व-त्योहार, सम्बन्ध सभी इसमें मदद करते हैं। 17 साला का बूढ़ा और 71 वर्ष का जवान वाली परिभाषा यहां आज भी प्रचलित है। बुढ़ापे से जुड़ी अनुभूतियां केवल सेहत की अक्षमताओं तक सीमित नहीं रही। इनका अधिक विस्तार है। पर शरीर भाव से ऊपर उठकर आज भी जीवन का आनन्द लें।
वास्तव में जीवन के साथ सक्रिय जुड़ाव मूल है, आज भी बड़ी संख्या में लोग इन मानदण्डों की तुलना में स्वयं को अधिक सफल मानते हैं।

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