हम किसी चीज को मन-बुद्धि के द्वारा जानते हैं, पर इस साधारण मन से हम उतना नहीं समझ पाते हैं, जितना गहरा वह है। क्योंकि किसी व्यक्ति-वस्तु को देखकर सामान्य ऊपरी मन में विचारों की जो तरंगें उठती हैं, बस उसी ज्ञान के सहारे मन को समझने की हम कोशिश करते हैं। पर मन स्वयं इससे गहरा है। मन की उस गहराई तक हम पहुंच सकें, तो उसी वस्तु के अनन्त रहस्य उद्घाटित होने लगते हैं, जिसे हम पहले सामान्य मानते थे। ऋषियों ने मन के इसी गहरे स्वभाव को समझा और बताते हुए कहा कि ‘‘यह मन जब सुप्त अवस्था में रहता है, तो सुप्त में दुःख की वेदना नहीं होती। जबकि इसके जागते ही समस्त प्रकार की संवेदनाएं उभरने लगती हैं। मनुष्य के लिए उस सुप्त मन को जानना दुस्तर सिद्धि है, पर इस सुप्त मन की महती ऊर्जा को प्राप्त कर हर कोई परम आनन्दपूर्ण जीवन जी सकता है। पर इस विश्व ब्रह्माण्ड की महानतम दिव्य ऊर्जा शक्ति प्रवाह से जोड़ने, उसे लयात्मक करने में गुरु की दृष्टि जरूरी है।’’
मन के इस आनन्द के लिए सही गुरु का सान्निध्य व गुरु मार्गदर्शन में ध्यान, जप, सत्संग, स्वाध्याय, सेवा, साधना, संयम और संतोष को अपने जीवन का अंग बनाने की साधना करनी पड़ती है। पूज्य गुरुदेव कहते हैं-‘‘भारत के तपस्वियों ने अपनी गहरी तपश्चर्या और अगाध ज्ञान गरिमा से मन, आत्मा, जीवन आदि के रहस्य को समझने की विधि हम सबको अनन्तकाल पूर्व से कृपापूर्वक दे रखी है। इसे आत्मसात करना अब हमारा काम है। मन, बुद्धि, आत्मा के सहारे बहुत कुछ हो सकने, अनन्त सम्भावनाओं को उजागर करने के प्रयास को आगे बढ़ाने में गुरुसत्ता सहायक होगी, पर इसके लिए हमें गुरु की अनुशासन मानना होगा। उनके प्रति श्रद्धा-विश्वास जगाना होगा, आगे का मार्ग स्वतः तय हो जायेगा।’’ वे क्रम हैं-
गहरी श्रद्धा:
कहते हैं भगवान् से लाभ उठाने की पांच बातें हैं-नामजप, ध्यान, सेवा, आज्ञापालन और संत संग। परन्तु सन्त-महात्माओं से लाभ उठाने के लिए तीन ही बातें बहुत हैं-संतसेवा, आज्ञापालन और उनका संग। इसलिए हम श्रद्धापूर्वक गुरु का दिया नाम-जप, ध्यान और गुरु कार्य करके उनकी आज्ञा, उनके सिद्धान्त का पालन करें और गुरु सान्निध्य-गुरुदर्शन से जीवन की गहराई में उतरें। सच कहें तो गुरु के सिद्धान्त एवं आदेश के अनुसार जीवन बनाना ही वास्तविक गुरु-पूजन और गुरु सेवा है। शिष्य जब गुरु के सिद्धांत-अनुशासन-आदेश को श्रद्धापूर्वक धारण करता है, तो वह स्वतः गुरु के प्राण चेतना से जुड़ने लगता है। इस प्रकार शिष्य का जीवन दिव्य आनन्द से भर उठता है। गुरु के शरीर रूपी मंदिर में साक्षात परमात्मा वास करते दिखने लगते हैं।
समर्पण की आंखः
सच कहें तो जैसे वृक्षों के सौंदर्य को देखना हो तो माली के कला वाली आंख चाहिए। किसी के प्रेम को पहचानना है, तो प्रेमी का हृदय चाहिए। उसी प्रकार गुरु को पहचानना है, तो समर्पण की आंख चाहिए। तभी उसमें से झरते परमात्मा को हम अनुभव कर सकते हैं। क्योंकि गुरु इस जगत के सारे सौंदर्य, प्रेम और सत्य का इकट्ठा स्वरूप है। उसको समझने के लिए निर्विकार चित्त चाहिए, साक्षी-भाव चाहिए, जहां कोई शब्द, कोई विचार, कोई अन्य तरंग न उठे। साधक के मन और चित्त का दर्पण परिपूर्ण और शुद्ध हो। गुरु रामदास को देखने के लिए शिवाजी में ऐसा ही भाव जगा था, तब बहुत कुछ उद्घाटित हो उठा था।
सही सद्गुरु का मिलनः
सही शिष्य के लिए सही गुरु मिलना जरूरी है। विवेकानंद ने सही सद्गुरु पाया था, शिवा ने समर्थ को पाया, ऐसे अनेक उदाहरण भरे हैं इस धरती पर। कहते हैं नरेन्द्र को जब रामकृष्ण ने देखा, तो उसमें अनन्त संभावनाओं से भरा युवक दिखा। जिनके भविष्य में बहुत कुछ होने को पड़ा था। बड़ा खजाना था विवेकानन्द में, जिससे वह अपरिचित था। रामकृष्ण ने इस युवक के पिछले जन्मों में झांका। वह बड़ी सम्पदा, बड़े पुण्य की सम्पदा लेकर आया था। ऐसे में एक गुरु रूप में पीड़ा और करुणा से रामकृष्ण का हृदय कराह उठा और विवेकानन्द को जगाने का बहाना खोजा। कहते हैं रामकृष्ण ने नरेन्द्र को कुछ पढ़ने को दिया और कहा मुझे पढ़ने में अड़चन होती है। तू पढ़कर मुझे सुना दे।’
उस किताब को सुनाते-सुनाते ही विवेकानंद डूब गये और रामकृष्ण ने इस व्यक्ति के मन, बुद्धि, चित्त, आत्मा ही नहीं, सम्पूर्ण जीवन की गहराई में छिपी अनन्त शुद्ध संभावनायें उभार दीं।
कहते हैं कि यदि अंदर रहस्य है, तो कभी न कभी उसे जगना ही होता है। एक गुरु द्वारा शिष्य का बदलाव। विवेकानंद में भले तर्क भरा था, पर उसमें जन्मों से सेवा, साधना, संयम, संतोष और शांति चली आ रही थी। अतः रामकृष्ण ने उसके मन, बुद्धि के सहारे गहराई में उतरकर उसमें जीवन रहस्य उजागर कर दिया और सामान्य सा नरेन्द्र विवेकानन्द बन गये।
वास्तव में गुरु को तो माध्यम भर चाहिए। यदि उसने कृपा कर दी तो रहस्य उजागर होते ही हैं। आइये! हम अपने अंदर के गुरुत्व को जगायें, जिससे हमें सही गुरु मिले और हमारा गुरु हमें अंदर से जगा दे।