प्राण – विचारों की शुद्धता में जुटानी होगी इक्कीसवी सदी

प्राण – विचारों की शुद्धता में जुटानी होगी इक्कीसवी सदी

Prana - twenty-first century will have to gather in purity of thoughts

रामानुज जिन्होंने भक्ति की विशिष्ट धारा प्रवाहित की। कम्बन ने तमिल में रामायण लिखी, ज्ञानदेव ने दक्षिण भारत में भक्ति आन्दोलन का श्रीगणेश किया, तो माधवाचार्य ने वेदान्त में द्वैतवाद की अवधारणा प्रतिष्ठित की। संत नामदेव परमात्मा के संदेश को घर-घर पहुंचाने के लिए महाराष्ट्र के गली-कूंचों में संकीर्तन करते रहे। रामानन्दाचार्य ने रामकथा को घर-घर तक पहुंचाया। कबीर ने धर्म की आधारशिला पर सर्वधर्म की नींव डाली। इस प्रकार सबने विराट निर्गुण भक्ति का प्रादुर्भाव हुआ। जिसने मानवता को प्रभावित और प्रेरित भी।

तत्पश्चात् ऋषियों, संतों और महापुरुषों की इस श्रृंखला में सोलहवीं सदी में सिक्ख धर्म के प्रवर्तक गुरुनानक देवजी का अवतरण हुआ। तो चैतन्य महाप्रभु ने पूर्वी भारत को भजन, कीर्तन और नृत्य से सराबोर किया। वहीं गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना कर राम को घर-घर पहुंचाया। सूरदास ने कृष्ण की बाल-लीलाओं का वर्णन कर प्रत्येक माँ में माता यशोदा बनने की चाहत पैदा की और मीरा ने तो कृष्ण के प्रेम में सम्पूर्ण जीवन ही समर्पित कर दिया। अंत में वे श्रीकृष्ण के विग्रह में समा गई। वल्लभाचार्य ने श्रीनाथ पंथ का प्रवर्तन किया। जबकि सत्रहवीं शताब्दी में गुरु गोविन्द सिंह ने हिन्दू और सिक्ख धर्म के रक्षार्थ खालसा पंथ की स्थापना की, संत तुमाराम महाराष्ट्र के गली-कूचों में भक्ति के गीत गाते रहे। संत शासक बाला जी विश्वनाथ ने अहिंसा के बल पर मराठा राज्यों को मुगलों से आजाद कराया।

संकट प्राण-मन की शुद्धता काः
इन संतों और महापुरुषों के प्रादुर्भाव की इस महायात्रा परम्परा में आज विश्व पुनः एक नई चेतना की आवश्यकता अनुभव कर रहा है, जो मानव जीवन में समाई जड़ता तोड़ सके। जिससे मानव में प्राण चेतना का जागरण हो। प्राणगत जड़ता टूटे, ताकि मनुष्य में मनुष्यता जग सके और वह प्राणियों के प्रति दया, करुणा, स्नेह, प्रेम, परोपकार की वर्षा कर सके। क्योंकि आज चहुँदिशा छाये संकट स्थूल नहीं सूक्ष्म रूप में हैं। कौन जानता था कि कोरोना वायरस से मनुष्य जाति के लिए जीवन संकट खड़ा होगा। ऐसे संकटों के निवारण के लिए स्थूल से लेकर श्रेष्ठ विचारों के प्रेरकों तथा ऐसे संत साधकों की जरूरत है, जो प्राण की साधना करते हों और जनमानस को अपने तपःपूर्ण प्राण का दान कर सकूँ। इक्कीसवीं शताब्दी को विचारों की पवित्रता, प्राणों की शुद्धता, शांति, प्रेम, अहिंसा के अभ्युदय के लिए खपानी होगी। वास्तव में संकट भी इसी पर है।

हमें जीत नहीं समाधान चाहिएः
ध्यान से देखें तो आज भौतिक विकास के युग में सुख-सुविधा के साधन तो बढ़े हैं, परन्तु मनुष्य मनुष्यता से गिर गया। इसीलिए इन साधनों के होते हुए भी वह स्वयं इनके सुख का अनुभव नहीं कर पा रहा। अतः व्यक्ति रंजोगम में डूबा है। स्थान की दूरियां विज्ञान ने जरूर कम कर दीं, परन्तु व्यक्ति के दिलों की दूरियां कम नहीं हो पाईं। मनुष्य अपने अन्याय, अभाव, अत्याचार, अज्ञान, अंधकार को दूर नहीं कर पा रहा। विज्ञान की प्रगति से प्राप्त साधनों द्वारा हम सब स्वर्णिम, सुखद भविष्य के लिए आशान्वित, स्वस्थ एवं ईमानदार समाज की संरचना नहीं कर पाए। आज भी भूख एक बड़ी समस्या है। भाषा, भूषा, भोजन, भजन के नाम पर व्यक्ति टूटता, बंटता दिख रहा है। विश्व में हिंसक-निर्दयी सत्ताधारियों के क्रूर हाथों में आणविक व अनेक आयुध दिखाई दे रहे हैं। दुःखद पहलू यह है कि बचाव के लिए शांतिदूतों ने भी ‘शठे शाठ्यं समाचरेत्’ का ही मंत्र जपना शुरू कर दिया है। ऐसे में आखिर तबाह तो मानव व मानवता को ही होना है।

जरूरत मनुष्यताभरे मानव कीः
विज्ञान से उपजे नित-नूतन सुविधाओं-साधनों के बावजूद आज जरूरत है कि वह मानव मन मे व्याप्त तनाव, चिंता, भय, निराशा, टूटन, ईर्ष्या, द्वेष, कलह, क्लेश, गलाकाट प्रतिस्पर्धा की भावनात्मक मानसिक, चिकित्सा भी करे। वह शांति, संवेदना, दया, करुणा रूप में दस्तक दे। जो मानव के मन-मस्तिष्क हृदय पर अपना अधिकार जमाकर मनुष्य को अपनी ऋषि परम्परा से जोड़ सके। वह साधना, ध्यान-योग, जप तो करें, पर अंदर के व्यक्ति को जगा सके। हर मनुष्य अपने में सुंदर, व्यवस्थित जीवन, सुविचारित कार्य योजना, कठोर अनुशासन तथा नियमपूर्ण जीवनचर्या, संतुलन, प्रेम, प्रसन्नता, सहनशील और उत्साहपूर्ण व्यक्तित्व जगाने में रुचि लेने लगे। ऐसे मानवता के लक्षण जन-जन में उगे। आध्यात्मिकता व्यक्ति के जीवन का विषय बने। अतः नव सहस्राब्दी में विश्व विज्ञान का ऐसे अभिनव मानव का सृजन करना होगा, जो धर्म और अध्यात्म के भाव सम्वेदना, पवित्रता वाले पक्ष से लोगों को जोड़ पाएंगे।
आज शांति के पथ-प्रदर्शक सच्च संत व सच्ची शांति, आनन्द-प्रेम और सुख का मार्ग दिखा सकने वाले मनुष्य के प्रति आकर्षण बढ़ा है। इस संदर्भ में सम्पूर्ण विश्व भारत व भारत भूमि की ओर टकटकी लगाकर बाट जोह रहा है कि शायद वहां मनुष्य के मन-प्राणों की शुद्धता का से कोई मार्ग निकले और मनुष्य पुनः अपने निज स्वभाव से जुड़ सके।

व्यवहार सम्मत मनुष्यः
महात्मा बुद्ध द्वारा दिये गये पंचशील को लेकर विश्व का जनमानस प्रतीक्षारत है कि सम्भवतः भारत इसमें नव प्राण भरे। क्योंकि इन पंचशीलों में शांतिमय, पवित्रतम व्यावहारिक मानव निर्माण की शक्ति दिखती है। जरूरत है पंचशील से सुव्यवस्था, नियमितता, सहकारिता, गतिशीलता, शालीनता, संयम, परोपकारिता, वाले मानव को गढ़ने के लिए जीवन में नये प्राण भरने की। मात्र इतना भर कर सके, तो जन-जन के जीवन में समाधान स्वतः घटित होगा।

इसके लिए देश के हर आध्यात्मिक माली को परिश्रम करना पड़ेगा। उसे बीज भी लगाना होगा, पौध की तैयारी, फिर पौध को उपयुक्त स्थान पर रोपने का कार्य भी पूरा करना होगा। ऐसे प्रयोग से जुड़ा व्यक्ति संसार में चमत्कार पैदा कर सकता है।

व्यक्ति कितना भी बुद्धिमान क्यों न हो, समर्थ व शक्तिशाली क्यों न हो, उसकी क्षमताएं सीमित होती हैं। पर आत्म धरातल ऐसा पक्ष है, जिससे जुड़कर उसमें नारायण बनने की शक्ति आ जाती है। हमारे प्राचीन ऋषियों के इसी कार्य को ही आगे बढ़ा रहे हैं पूज्य सद्गुरुदेव और उनके लाखों शिष्यगण।

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