बहुत बड़ा अहम और मूल प्रश्न है, सद्गुरु शिष्य को क्या देते हैं कि वह उनका मुरीद बन जाता है। यह पूछो, सद्गुरु क्या नहीं देते। गुरु सब कुछ देते हैं, अपना पूरा ज्ञान, अपनी तपस्या, अपने अनुभव। गुरु कहते हैं मैं शिष्य को सबकुछ देकर इसे मालामाल कर दूं सांसारिक और आध्यात्मिक दृष्टि से। इसे संसार भी मिले और करतार भी मिले और सुधांशु जी महाराज तो सब कुछ बांटते हैं निवेदन से। आपने महाराजश्री के प्रवचन सुनते कभी ध्यान दिया है, आदेश, उपदेश, निर्देश शब्दों का प्रयोग नहीं करते। फरमाते हैं निवेदन है, कितनी सरलता, कितनी विनम्रता, कितनी आत्मीयता, कितना अपनापन। कहते हें मैं तो वह बोलता हूं, जो वह बुलवाता है। अहंकार लेश मात्र नहीं।
सांसारिक दृष्टि से गुरुदेव कहते हैं, संसार में कमाओ, किन्तु ईमानदारी से, भोग भोगो, किन्तु सीमा में, होश में, दुनिया से भागना नहीं, जागना है। धर्म को जीवन में उतारो, जो भी कार्य करो ईश्वर को साक्षी बनाओ। ईश्वरीय सत्ता को मानो, वही परमेश्वर तो हैं संसार के स्वामी, कण-कण में वास करने वाले सृष्टि के रचयिता, पालनहार और संहर्त्ता। उसकी सत्ता सर्वोपरि है। गुरु माध्यम है, प्रतिनिधि हैं उसके, उसका संदेश लेकर ही तो धरती पर आये हैं। गुरु वास्तव में अपूर्ण शिष्य को पूर्णता प्रदान करते हैं। शिष्य अपूर्ण क्यों? क्योंकि शिष्य इस शरीर को, परिवार को, संसार को ही सत्य मानता है इसी के भरण पोषण में, सम्बन्धों में, खाने-कमाने और भोग करने में ही जीवन गुजार देता है। वह भगवान को बस इतना ही मानता है कि मंदिर जाकर या पूजापाठ करके उससे अपनी आवश्यकताओं को पूर्ण करने के लिए प्रार्थना करता है। वह कभी सोच ही नहीं पाता कि वह कौन है, कहां से आया। उसके जीवन का उद्देश्य क्या है। उसके कर्म कैसे हों, उसकी मुक्ति कैसे हो। इन सब बातों का बोध सद्गुरु कराते हैं।
गुरु जीवन के उस सत्य का बोध करवाते हैं, इसलिए क्योंकि सद्गुरु स्वयं पूर्ण होते हैं। वह शिष्य को पूर्णता की ओर ले जाते हैं। मैंने कहा, गुरु ज्ञान देते हैं, योगेश्वर श्री कृष्ण महाराज ने गीता के 13वें अध्याय के 8 से 12 श्लोक तक दिव्य ज्ञान की चर्चा की है। कहा है,
इन्द्रियार्थेषु वैराग्यमनहघड्ढार एव च। जन्ममृत्युजरव्याधिदुःखदोषानुदर्शनम्।।
असत्तिफ़रनभिष्वघõः पुत्रदारगृहादिषु। नित्यं च समचित्तत्वमिष्टानिष्टोपपत्तिषु।।
मयि चानन्ययोगेन भत्तिफ़रव्यभिचारिणी। विवित्तफ़देशसेवित्वमरतिर्जनसंसदि।।
अध्यात्मज्ञाननित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्। एतज्ञानमिति प्रोत्तफ़मज्ञानं यदतोन्यथा।।
ज्ञेयं यत्तत्प्रवक्ष्यामि य×ज्ञात्वामृतमश्नुते। अनादिमत्परं ब्रह्म न सत्तÂासदुच्यते।।
अर्थात् विनम्रता, दम्भहीनता, अहिंसा, सहिष्णुता, सरलता, प्रमाणिक गुरु के पास जाना, पवित्रता स्थिरता, आत्मसंयम, इन्द्रियतृप्ति विषयों का परित्याग, अहंकार का अभाव, जन्म, मृत्यु, वृद्धावस्था तथा रोग के दोषों की अनुभूति, वैराग्य, सन्तान, स्त्री, घर तथा अन्य वस्तुओं की ममता से मुक्ति, अनुकूल तथा प्रतिकूल घटनाओं के प्रति समभाव। मेरे (कृष्ण) के प्रति निरंतर अनन्य भक्ति, एकान्त स्थान में रहने की इच्छा, जनसमूह से विलगाव, आत्म-साक्षात्कार के महत्व को स्वीकार करना तथा परम सत्य की दार्शनिक खोजµइन सबको मैं ज्ञान घोषित करता हूं। इसके अतिरिक्त जो भी है, वह अज्ञान है।
अब संक्षेप में हम इनके बारे में जानेंगे। विनम्रता का यहां अर्थ है कि मनुष्य को दूसरों से सम्मान पाने की इच्छा नहीं रखनी चाहिए। दम्भ हीनता का अभिप्राय है कि प्रायः व्यक्ति अपने ज्ञान का अहंकार न करे। अहिंसा का अर्थ है किसी व्यक्ति को कर्म अथवा वाणी से कष्ट न पहुंचाना। सहिष्णुता अर्थात् सहन करना, यहां तक कि किसी दूसरे द्वारा अपमान किये जाने पर बर्दाश्त कर लेना। सरलता है बिना किसी कूटनीति के सामान्य जीवन व्यतीत करना। शौचम है जीवन में, व्यवहार में लेन-देन में पवित्रता। दृढ़ता से मतलब है एक बार निर्णय करने के बाद उस पर डटे रहना। आत्मसंयम तो बहुत बड़ा गुण है। व्यक्ति वह सब कुछ त्याग दे, जो उसकी आध्यात्मिक उन्नति में बाधक है। यह उसका वैराग्य है। इसी प्रकार अन्य गुणों को जीवन में उतारना ही सच्चा ज्ञान है।
2 Comments
Bahut khub real life chage for motivation guru vachan
हां मेरे गुरु में आपने जो बताया उससे भी ज्यादा है हम लोग इनकी शक्ति का अहसास करते है और अपने आपको सौभाग्यशाली मानते है कि ईश्वर कृपा से हमें इस जीवन में आप गुरु रुप में आपका सानिध्य मिल रहा है आपके श्री चरणों में मेरा कोटि कोटि प्रणाम गुरुवर कृपा करते रहिए