अशुभ वासनाओं के भ्रमजाल में मनुष्य नरक की यंत्रणा ही झेलता है। इसके विपरीत सत्संग, परोपकार, गुरु सेवा, गौ सेवा, शिक्षा सेवा सहित अनेक शुभकार्य तथा आत्मसमीक्षा तथा आत्मसुधार द्वारा मनुष्य देवत्वपूर्ण स्वर्ग की तरफ अग्रसर होता है। इसप्रकार मनुष्य के सामने दो मार्ग हैं एक नरक का और दूसरा स्वर्ग का।
मान्यता है कि स्वर्ग और नरक स्वयं मनुष्य में ही विद्यमान हैं। ये मानव मन के दो स्तर हैं। मनुष्य के मन में जब देवत्व व सद्गुणों का पवित्र प्रकाश होता है जिस कर्म से मनुष्य में दया, प्रेम, करुणा, सहानुभूति, उदारता की भावनाएं प्रबल होती हैं। मन स्वतः प्रसन्नता से भरा रहता है, ये सभी मानसिक कल्याणकारीभाव स्वर्ग की स्थिति कही जाती है। दूसरी मनःस्थिति में मनुष्य उद्वेग, चिंता, भय, तृष्णा, प्रतिशोध, दम्भ आदि आसुरी प्रवृत्तियों से घिरा रहता है। सामान्यतः कुसंस्कारी और दुर्गुणी मनुष्य अपनी ओछी हरकतों से चिंता, क्रोध, भय, असंतोष, ईर्ष्या में इतना दुःखी रहता है कि उसका खुद का जीवन भार स्वरूप हो जाता है। उसकी ये अनुभूतियां नारकीय हो तो कही जाती हैं। इस प्रकार इस संसार में रहते हुए इसी मानव-जीवन में ही उसे स्वर्ग और नरक जैसे सुख-दुःख प्राप्त हो जाते हैं। जिनकी उच्च कोटि की शुभ कल्याण मय भाव-विचारधारा होती है, उन्हें स्वर्ग की अनुभूति सतत् होती रहती है। प्रश्न उठता है कि इन बंधनों से व्यक्ति कैसे छूटे, जिससे उस जीवन में शांति, प्रेम और तृप्ति की अनुभूति सतत होती रहे।
मानसिकत तपः
इसके लिए मानसिक तप आवश्यक है। भारतीय ट्टषि कहते हैं व्यक्ति के मन में ही उसका संसार बसता है। अतः मानसिक तप ही वह अस्त्र है, जिसके बल पर व्यक्ति अपने दोष-दुर्गुण, स्वार्थ-संकीर्णता, क्रोध-अहंकार, लोभ-मोह से मुक्त हो सकता है। क्योंकि हमारे प्रगति के पथ पर यही विकार रोड़े अटकाते रहते हैं। हमें समृद्धि से रोकते हैं। इन्हें तोड़कर ही शुचितापूर्ण सात्विक जीवन जिया जा सकता है। हमें गुरु कृपा से ज्ञान, वैराग्य और भक्ति से भी वासनाओं के बीजों को जलाने का प्रयास करना चाहिये। मनुष्य लग्नपूर्वक यह प्रयास करे तो सफलता मिलती है।
कर्मबीज जला देनाः
मन ऐसा सरोवर है, जिसमें अनेक प्रकार की लहरें उठती हैं। मन में काम, क्रोध, लोभ, अहंकार और मद की लहरें उठती ही रहती हैं। ये लहरें समुद्र में उठते ज्वार-भाटें की तरह हैं। पूज्य सद्गुरु श्री सुधांशु जी महाराज कहते हैं ‘‘मन की वृत्तियों का ऊर्जा प्रभाव इस तरह होता है, जैसे धरती के सीने को फोड़ कर कोई ज्वालामुखी बाहर निकल आया हो। व्यक्ति के व्यक्तित्व को हिलाने में ये लहरें पूरी तरह सक्षम हैं, जो व्यक्ति को आदत को गुलाम बना लेती हैं। वह कितना भी बड़ा ज्ञानी, ध्यानी, तपस्वी क्यों न हो। इन आदतों की गुलामी वाली वृत्तियों से मुक्ति के लिए साधना, तप, गुरुकृपा ही काम करती है। इस माध्यम से मनुष्य के कर्म-बीज अंदर से जलते हैं, और तब मनुष्य को शांति मिलती है। शांति आने के बाद मन में उठ रही ये वृत्तियों की आंधियां भी शिथिल हो जाती हैं और जीवन में सद्वृत्तियों का सृजन होता है।’’
इंद्रिय परिष्कारः
पर इन बंधनों के अनेक कारण भी हैं, जिन्हें एक-एक करके हटाना पड़ता है। बंधन का प्रमुख कारण आसक्ति है अर्थात् संसार की वस्तुओं और व्यक्तियों के प्रति जरूरत से अधिक लगाव होना। शास्त्रीय मतानुसार हमारी इंद्रियां अपने-अपने स्वाद की ओर लालायित रहती ही हैं। जिस इंद्रिय का जहां लगाव है, वह उसी ओर भागती है, ये लगाव ही बांधने का कारण बनते है।
यद्यपि लोग इन पर कठोरता से नियंत्रण करते हैं, पर इस मन व इंद्रियों को जैसे ही आजादी मिलती है, ये अपनी मूल प्रवृत्तियों का प्रदर्शन शुरू कर देते हैं। क्योंकि यदि हम इन्द्रियों को उपरी दबाव से नियंत्रित करते हैं, तो ये इन्द्रियां अवसर पाकर अधिक विस्फोटक रूप धारण कर हमारे सामने उपस्थित होंगी। अतः मन अथवा इन्द्रियों का दमन करना कोई इलाज नहीं है।
इन्द्रियों का दमन करने की हमारे तपस्वियों ने बड़ी चेष्टा की है। उन्होंने इन्द्रियों के मायाजाल से छूटने के लिए अपने शरीर को खूब सताया। लेकिन हठपूर्वक मन पर नियंत्रण पाने में कामयाब नहीं हो सके। इसलिए ट्टषियों, आत्मयोगियों ने बताया कि इनका एक मात्र रास्ता है मानसिक विकारों का परित्याग एवं परिष्कार। परिष्कार एवं परिशोधन के लिए हमें जीवन शुद्धता की ओर बढ़ना होगा।
बदलाव की सीढ़ियांः
मन को बदलने के लिए जिस सीढ़ी का प्रयोग करना है, उसमें सद्गुरु व संत वाक्यों के प्रति ‘श्रद्धा’ प्रमुख है। श्रद्धा से ही समर्पण भाव जागता है। श्रद्धा से अन्तः में अनंत दिव्य भाव जागते हैं और गुरु व ईश्वर की कृपा मिलती है।
श्रद्धा का दीया आंधियों और तूफान में भी जलना जानता है और परमात्मा के दरबार का दिया बनकर प्रकाशित होता रहता है। इसलिए अपने मन पर श्रद्धा व विश्वास के दिये को को दृढ़ कीजिए।
कहते हैं मनः सत्येन शुद्धते अर्थात् सत्य अपनाओ, बनावटीपन और दिखावा छोड़िये, सीधे सहज रहिए। शुद्ध मन से भगवान का परम भक्त बनकर अपने को प्रभु के चरणों में समर्पित करिये। इससे धीरे-धीरे मन बदलने लगेगा। जब मन बदलेगा, तो आदते बदलेगी, अंततः जीवन शांति, सुख, प्रेम, तृप्ति से भर उठेगा। तब हम संसार का काम अवश्य करेंगे, लेकिन ध्यान भगवान की तरफ रहेगा। कार्य के साथ बैठते-उठते भगवान का नाम ध्यान रहेगा। अन्न ग्रहण से लेकर हर समय भगवान का ध्यान रहेगा। इसप्रकार अजपा जाप के रूप में ईश्वर भाव हर वक्त चलता रहे। माला हाथ में रहे न रहे, पर मन में अच्छा संस्कार जगे। भगवान का भजन हो तथा अनर्थों का परित्याग हो। तब हम मन व जीवन दोनों बदलने में सफल होंगे। तब गुरु कार्यों में सेवा दान कर सकेंगे। जितना सद् के इस अभ्यास से आनंद आएगा। तब हमें गुणों को ग्रहण करने लगेंगे, कमजोरियों पर विजय प्राप्त करेंगे।
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मेरे गुरुदेव आपको शत् शत् नमन आपके अमृत वचनों को सुनकर मन आपके दर्शन को बेचेन होता है केसे आऊ में सांवरिया तेरि गोकुल नगरी