दानम् एकम् पदम् यशः पुण्यं (दान का प्रमुख लक्ष्य यश-पुण्य है) | Sudhanshu Ji Maharaj

दानम् एकम् पदम् यशः पुण्यं (दान का प्रमुख लक्ष्य यश-पुण्य है) | Sudhanshu Ji Maharaj

दान ही धर्म की परिणति है

दान ही धर्म की परिणति है

दानम् एकम् पदम् यशः पुण्यं (दान का प्रमुख लक्ष्य यश-पुण्य है)

एक राजदरबारी कवि मस्ती में चला जा रहा था, उसने देखा तेज धूप में एक आदमी नंगे पैर सड़क पर जा रहा है। नंगे पैर व पथरीले रास्ते के कारण उसके पैरों में छाले पड़ गए और छालों में बढ़ता दर्द उसके चेहरे से स्पष्ट झलक रहा थ। यह देखकर कवि महोदय को दया आ गई, उन्होंने अपने जूते उतारे और उसकी ओर बढ़ा दिए और कहा भाई यह दान देने की वस्तु तो नहीं, किन्तु इस समय तुम्हें यही दी जानी चाहिए। अतः इसे एक भाई का दिया हुआ सहयोग समझकर स्वीकार कर लो।

सेवा करने का मौका न जाने दें

इसप्रकार कवि महोदय स्वयं बिना जूतों के चल दिए, किन्तु थोड़ी देर बाद उनके स्वयं के पैर में भी छाले पड़ गए, दर्द होने लगा। उन्हें अपने दिये गये दान पर हंसी आई, सोचने लगे अच्छे खासे चल रहे थे, बेकार दान कर दिया और इस दान का फल हमें दर्द रूप में मिला। पर तत्काल उनका कवि हृदय पिघला और सोचने लगे कि हम मनुष्य हैं, मनुष्य को परमात्मा ने धरती पर अपना हाथ बटाने के लिए ही तो भेजा है, ऐसे में छोटी-सी सेवा करके धर्म करने का सौभाग्य का अवसर कैसे खोता। निश्चित हमारे जीवन में धर्म है, तभी दया का मौका मिला, इससे पीछे नहीं हटना चाहिए। इसी उधेड़ बुन में वे अपने रास्ते पर आगे बढ़े जा रहे थे, पैर जले जा रहे थे।

कुछ देता है उसके बदलें में जरुर कुछ मिलता है

उसी समय देखतें हैं कि राजा साहब का महावत हाथी लिए पास के बगीचे से चला आ रहा है, महावत ने कवि महोदय के पास आकर हाथी को रोक दिया और हाथी पर बैठने का निवेदन किया। वे बैठ गये और सुकून से अपने दरबार पहुंचे। कवि को हाथी पर बैठे देख राजा ने व्यंग्य से पूछा यह हाथी आपको कहाँ मिल गया? पैसे खर्च किए या खरीद कर लाए? कवि को अहसास हुआ कि निश्चित ही परमात्मा ने हमारे जूते दान का उपहार हमें हाथी पर बैठाकर दिया है, क्यों न ईश्वर को धन्यवाद दे लिया जाय। इस प्रकार कवि महोदय ने राजा से कहा

“उपानहम् मया दत्तम् जीवनम् कर्णविवर्नितम् तत् पुण्येन गजारोहो न दत्तम्वेहितद्गतम्!!”

अर्थात् एक फटा पुराना जूता दान करने का पुण्य है ये हाथी, पुण्य के बदले में इस हाथी पर बैठकर आया हूँ। हे राजन्! आज सीख भी मिला कि इंसान जो कुछ भी देता है, उसके बदले में बहुत कुछ पाता है। पर जो कुछ भी सेवा हेतु नहीं देता, उसके हाथ से जो है वह भी निकल जाया करता है। आज जूते दान किये तो हाथी मिला, यदि जीवन में देने की यह बात पहले समझ पाता, तो अब तक न जाने क्या-क्या पा लिया होता।

दान ही धर्म की परिणति है

उसी दिन से उस कवि ने सब कुछ छोड़कर लेने की जगह देने में लग गया और हजारों लोगों में दान-सेवा के भाव जगाये, उन्हें असली सुख से परिचित कराया। इसीलिए कहते हैं

 ‘दानम् एकम् पदम् यशः-पुण्यं’ दान का प्रमुख लक्ष्य यश-पुण्य है।

व्यक्ति दान करता है, सेवा-सहयोग करता है, तो यश मिलता ही है। यश से इंसान को भगवान के दरबार में प्यार पाने का अवसर मिलता है। क्योंकि दान हम किसी वस्तु का करें या भावों का, वह अंततः स्वयं अपने लिए ही सुरक्षित हो जाता है। इसीलिए कहा गया कि दान ही धर्म की परिणति है।

 

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