समाज आज आस्था संकट से जूझ रहा है। परमात्मा की ओर से मनुष्य को मिले बुद्धिबल व समय का परस्पर सुनियोजन करके धन-साधन, सम्पत्ति कमाया जा सकता है, पर उत्कृष्ट गुण, कर्म, स्वभाव और चरित्र, जिसे देखकर अनजाना व्यक्ति भी हम पर विश्वास कर सके बिना आस्तिकता के असम्भव है।
इस आस्तिकता का निर्माण अंतःकरण में श्रद्धा और विश्वास के जागरण से होती है। अंतःकरण पर परिवर्तन स्तर का प्रभाव यही डालने में समर्थ है। आस्तिकता को जीवन की गहराइयों में स्थापित करने में उपासना, ध्यान, सुमिरन, प्रार्थना, मंत्र जप, गुरुदर्शन, सत्संग, स्वाध्याय, सत्कर्म आदि सहायक बनते हैं। जीवन में आस्तिकता जगते ही जीवन की समस्त आंतरिक विभूतियों का धर्म-सेवा-आदर्श के लिए नियोजन होता है। जीवन को ऊंचाईंया देने वाली इस आस्तिकता को जगाने की प्रयोग स्थली परिवार ही है। हर आस्तिक परिवार अपनी सुख-शांति, समृद्धि सदाशयता-संतोष में सहज वृद्धि करता है। इसलिए जीवन में संस्कार जगाने एवं व्यक्तित्व में आस्तिकता योग जगाने वाली प्रयोग प्रक्रिया हमें अपने परिवार के बीच विकसित करने की आज बड़ी जरूरत है।
सद्गृहस्थ, समाज सुधारक, उपदेशक, नौकरी पेशेवर, अधिकारी, व्यापारी, राजनेता हो अथवा आम साधारण व्यक्ति सबके व्यक्तित्व को गढ़ने की भूमिका परिवार ही निभा सकता है। भारतीय परम्परा में परिवार को नररत्नों को गढ़ने की खदान, जीवन से जीवन गढ़ने का केन्द्र कहा गया है।
आस्तिक होने का आशय ईश्वर को मानना ही नहीं है, अपितु ईश्वर की मानने पर जीवन में सही आस्तिकता जगती है। लोग धर्म व ईश्वर को मानते है, पर जीवन में धर्महीनता देखने में आती है। परिवार के प्रति अनास्था, यहां तक कि लोगों में स्वयं के प्रति भी अनास्था देखने को मिलती है। सम्पूर्ण बिखराव का मूल आस्तिकता का अभाव ही है।
जीवन, परिवार व समाज में उत्कृष्ट आस्तिकता योग की सतत अभिवृद्धि के लिए हर मनुष्य को अपनी दिनचर्या एवं जीवन चर्या में उपासना, सद्विचार, सत्संग, ध्यान, सुमिरन, प्राणायाम, योगासन, दान, सेवा आदि को स्थान देने की जरूरत है।
तब जीवन में प्रेम, त्याग, संयम, श्रेष्ठता, शांति, सुव्यवस्था, संतोष, सामाजिकता व लोक व्यवहार विकसित होगा। मनुष्य उच्चस्तरीय भावनाओं से भर सकेगा और जीवन व समाज में तालमेल बढ़ेगा। श्रद्धा और विश्वास जीवन की गहराइयों में फलित होगा। मनुष्य अधोगामी प्रवृत्तियों से ऊँचा उठेगा। वह ईश्वर व धर्म का अनुशासन सहज स्वीकार करके बदलने का प्रयास करेगा। इस प्रकार जब कण-कण व जन-जन में ईश्वर की अनुभूति होने लगती है, कर्मफल में आस्था जगती है। जीवन व्यवहार के आदर्शों, सद्गुणों, ईश्वर को तलाशने की कला विकसित होती है। तभी जीवन से लापरवाही, फिजूलखर्ची, गलत लोगों की संगति आदि बुराइयां दूर होने लगती हैं।
अपने अंतःकरण में ईश्वर उपासना, साधना, ध्यान, प्राणायाम, जप, सिमरण, समर्पण, संतोष आदि को प्रयोग स्तर पर स्थान देने से परिवार के सभी सदस्यों में यही सद्प्रवृत्ति जगने लगती है। बच्चे से लेकर बड़े सभी सदस्यों में ऐसे प्रयोगों के सहारे आस्तिकता जन्म लेती है। आस्तिक व्यक्ति अपने
स्वजनों के शरीर, मन, भावसंवेदनाओं, विचारों, बुद्धि आदि के पोषण के लिए भोजन, शिक्षण, आत्मिक, नैतिक प्रबंधन की व्यवस्था जुटाता है। इसके साथ-साथ अपनी सामाजिक भूमिका निभाता और अन्य से निभवाने के लिए सर्वतोमुखी पुरुषार्थ करता है।
जिस प्रकार भोजन के बिना शरीर का निर्वहन असम्भव है, साँस लिए बिना शरीर की नश-नाड़ियों में रक्त प्रक्रिया असंतुलित रहती है, उसी प्रकार श्रद्धा-आस्था-विश्वास आन्तरिक जीवन की सदाशयता, चित्त में संयम, संतुलन व चरित्र में सद्गुणों के अभाव में जीवन अनिश्चित, अनैतिक, अव्यवस्थित एवं आशंकित बना रहता है। इससे न तो व्यक्ति के जीवन में सफलता हाथ लगती है, न ही वह समाज के प्रति गरिमामय भूमिका निभा पाता है। क्योंकि मानव जीवन की आंतरिक सुख-शांति, प्रगति और पारिवारिक-सामाजिक प्रगति दोनों के बीच गहरा रिश्ता है। कहते हैं जिसका जीवन सधा हुआ होता है, उसका समाज भी सध जाता है और आत्मतेज भी उसी का बढ़ता है।
‘‘आस्तिकता योग इन सभी के बीच संतुलन ले आती है। आस्तिकता व्यक्ति के जीवन में आंतरिक उत्कृष्टता व सामाजिक सदाशयता दोनों भाव साथ-साथ विकसित करने में सहायक बनती है। यही नहीं आस्तिकता व्यक्ति में जीवन के मूलभूत उत्तरदायित्वों के प्रति, जीवन बोध और कर्तव्य पथ के प्रति विश्वास बढ़ाकर श्रेष्ठ नागरिक होने का गौरव जगाती है। इससे व्यक्ति का शरीर, मन, भाव, विचार, संकल्प, नीति एवं नियति सभी सकारात्मक धारा में नियोजित होने लगते हैं। व्यक्ति अपने निजस्वभाव में स्थिर होता है।”
आइये परिवार में आस्था-निष्ठा एवं अभिरुचि जगाकर जीवन, परिवार एवं समाज में आस्तिकता का बीजारोपण करें। जीवन में कर्त्तव्य और अनुशासन को स्थापित करके सुख-सौभाग्य भरा जीवन जीने का अवसर तलाशें।