सेवा, साधना, सिमरन, स्वाध्याय,सहयोग, सदभाव-जीवन का विषय | Sudhanshu Ji Maharaj

सेवा, साधना, सिमरन, स्वाध्याय,सहयोग, सदभाव-जीवन का विषय | Sudhanshu Ji Maharaj

आध्यात्मिक होने का अर्थ है

आध्यात्मिक होने का अर्थ है

भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक चेतना के सहारे जन जीवन में देवत्व जगाने के लिए जानी जाती है। यहां के नागरिक ज्ञानी बनने के लिए नहीं, अपितु जीवन को लोक कल्याण की रीति में उतारने के लिए सिद्धांतों को अपनाते हैं। हमारी संस्कृति सेवा-सहकार की संस्कृति है, यहां धन, पद, प्रतिष्ठा, वैभव, ज्ञान, साधना से लेकर भक्ति आदि की शक्ति धाराओं का अर्जन करने का एक ही लक्ष्य है कि ये दूसरों की पीड़ा बटाने के लिए काम में आ सकें। सभी सुखी हों, सबका हित हो, जन जन पर उपकारी हों, यही हमारे संतों, गुरुओं का भी दर्शन है। कहते भी हैं कि ‘‘अपनी रोटी मिल बांटकर खाओ, ताकि तुम्हारे सभी भाई सुख से रह सकें। यही आध्यात्मिक होने का अर्थ है, जीवन सत्य की भूमि पर, साधना अपनत्व व आत्मीयता की भूमि पर स्थापित इसी मार्ग से होता है।

‘बसुधैव कुटुम्बकम्’

सेवा, साधना, सिमरन, स्वाध्याय, सहयोग, सदभाव, संतोष को जीवन का विषय बनाकर जीवन जीना सदियों की परम्परा चली आ रही है। यहां के ऋषि व्यास, वशिष्ठ, विश्वामित्र, कबीर, नानक, रैदास से लेकर सभी संतों ने अपनी-अपनी आध्यात्मिक क्रांति से आजन्म समाज-देश में यही बीज बोये और जीवन व जगत को व्याप्त राग, द्वेष, भय, कायरता, निराशा, अपसंस्कृति, नास्तिकता और कदाचार से बाहर निकालने में लगे रहे। इसी ढंग से समाज में ज्ञान, ध्यान और सेवा-सहयोग की, धर्म-संस्कृति और संस्कार की परम्परायें चली तथा ‘बसुधैव कुटुम्बकम्’ वाली संवेदनाओं से ओतप्रोत समाज की युगीन संरचना मिली। संवेदनशीलता को मानव धर्म बताया और प्राणिमात्र की सेवा-सहायता को पूजा-आराधना का दर्जा दिया। हमारे विश्व जागृति मिशन के करोड़ों साधक मानव कल्याण की इन्हीं परम्पराओं का ही तो जीवन में पुनर्जागरण कर रहे हैं।

इसे हमें और भी प्रभावशाली बनाना है, केवल वैचारिक व स्थूल प्रयास से ही यह सब नहीं सार्थक  होंगा, अपितु हमें मिलकर सूक्ष्म-कारण स्तर की मनोभूमि तैयार करनी है। वेदों, उपनिषदों, पुराणों, गीता, रामायण, स्मृति-ग्रन्थों और नीति-ग्रन्थों का युगीन मन्थन करके धर्म के मूलभूत सूत्रों को जन मानस तक पहुंचाकर जन जन में सरल, सात्विक जीवन, भक्ति पूर्ण समर्पण जगाना है। साथ ही जन-जन में बुद्धिबल, आत्मिक बल, भक्तिबल, कीर्तिबल और वाक्बल को जगाना है, ताकि देश-धर्म हित में आवश्यकता पड़ने पर सब सफल मोर्चा ले सकें।

धर्ममूल्यों का संरक्षण

इसी प्रकार प्रवचनों, सत्संगों से ईश्वरीय प्रवाह, सात्विक संचेतना की हर एक को अनुभूति करानी है। हमें भक्तों, शिष्यों के जीवन में वह मन्यु जगाना है कि देश की रक्षा के लिए, धर्ममूल्यों के संरक्षण के लिए कदम बढ़ाते हुए यदि कुछ लोग विरोधी बनकर सामने खड़े हों, फिर भी वे कांपे नहीं, डरे नहीं, निर्भयता से उन्हें भी परिवर्तित कर सकें और देश का सौभाग्य जाग उठें। चहुंदिशि शाश्वत मुस्कुराहट विखरेे, जीवन निरन्तरता से जुड़कर फलदायी बनें, गुणों की सुगंधि चहुंदिशि फैले। हृदय में परमात्मा की कृपाएं उतरें, सबका समाज को सुंदर बनाने में योगदान मिल सके। आइये हम सब मिलकर संकल्प लें।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *