विश्व का कण-कण द्रुतगति से एक शाश्वत प्रवाह के साथ भाग रहा है। हर वस्तु अस्थिर है, पानी, हवा से लेकर सम्पूर्ण अणु-परमाणुओं में निरंतरता है, पृथ्वी दौड़ रही है, शरीर के पुराने कणों की जगह नए आ रहे हैं। कोई एक क्षण के लिए भी सुनिश्चित अवधि से अधिक नहीं टिक सकता, न ही किसी का भी एक तिनके तक पर अधिकार है। इस बहते प्रवाह की अनुभूति करना और उसी में आनन्द लेना ही जीवन है। इसके विपरीत यदि किसी ने इसे रोकने की जरा सी भी कोशिश की तो तत्क्षण प्रकृति का प्रवाह झटका मारकर उसे एक ओर हटा देता है। इसी धारा प्रवाह के बीच हमारा मनुष्य जीवन अपने विशेष महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मिला है। इस जीवन का परम उद्देश्य है ईश्वर को पाना, परम में पहुंचना। किन्तु कितने हैं जो इस ओर ध्यान देते हैं?
कोई शारीरिक सुख में मस्त है, तो कोई भ्रमजालों में फंसता जा रहा है। हम रोजमर्रा की छोटी-छोटी चाहतों को पूरा करने में लगे रहते हैं। जीवन क्या है? हम क्या हैं? हमारा उद्देश्य क्या है? ऐसे प्रश्न अंतःकरण में आते ही नहीं। जबकि रोटी, कपड़ा और मकान जैसे प्रश्नों से अनन्त गुणा बढ़कर हमें सचेत होने की जरूरत है आत्मा के लिए, परमात्मा के लिए। अमृत एवं आदर्श के लिए जीवन को मोड़ना प्रकाश की ओर, शाश्वत की ओर चलना है। तब जीवन से जुडे़ छोटे छोटे दुःख, दर्द, क्लेश, विपत्ति, व्यथा सब मिटने लगेंगे।
आत्मा-परमात्मा, ईश्वर सभी को एक रूप मानकर उपासना करो। अपने हृदय को विशाल, उदार, उच्च और महान बना दीजिए। अपने चिन्तन एवं दृष्टिकोण को थोड़ा विकसित कर दीजिए, बस यहीं से सम्पूर्ण संसार की वस्तुएं अपनी और अपनी वस्तुओं में संसार का अंश दिखने लगेगा। तब न हम स्वयं इन वस्तुओं एवं अन्य जीवों के गुलाम बनेंगे, न किसी अन्य को गुलाम बनाकर उनपर नियंत्रण करने की हमारी प्रवृत्ति पैदा होगी।
वैसी भी आत्मा पर किसी दूसरे का नियंत्रण हो भी नहीं सकता। जब आत्मायें स्वतंत्र हैं, सबमें भी उसी का अंश है, अतः सबकुछ आपका है अथवा कुछ भी आपका नहीं है, ये दोनों कथन जब एक ही अनुभव होंगे, तब सम्पूर्ण संसार के जीवों में ईश्वर की मूर्ति दिखाई देगी, जीव मात्र की पूजा में हृदय रस लेने लगेगा। तब स्त्री को देवी मानने का साहस पैदा होगा। हर जीव में परमात्मा बैठा दिखा मिलेगा, अपने पुत्र में गणेशजी और पुत्री में मां दुर्गा-सीता के दर्शन होंगें। उनके प्रति अपने उत्तरदायित्वों का पालन करते हुए अपेक्षा रहित जीवन जीने में संतोष अनुभव होगा। बच्चों की शिक्षा-दीक्षा का पूरा प्रबन्ध कर सकेंगे, पर उन्हें अपनी जायदाद मानने की रुचि अंतःकरण से हट जायेगी। तब संसार की विपरीतताओं से रंचमात्र दुख भी नहीं होगा।
वैसे भी आजतक जिसने भी किसी पर हक जमाया है, वह जायदाद हो अथवा संतान-संबंधी, पड़ोसी-सहयोगी से लेकर कुछ पर भी क्यों न हो, तत्काल प्रकृति ने उसी क्षण गाल पर तमाचा जड़ा है। लेकिन जब हमने
सम्पूर्ण संसार व संसारी जनों को एक प्रवाह मानकर व्यवहार किया, तो उसने हमें पूर्णता दी है। अनादिकाल से यही चला आ रहा है। आइये हम सब परमात्मा के इस शाश्वत प्रवाह का आनन्द लें।