पितर है बहाना, देवकार्य में लगे साधकों, प्रकृति प्रेमी जीवों को है बचाना

पितर है बहाना, देवकार्य में लगे साधकों, प्रकृति प्रेमी जीवों को है बचाना

पितर है बहाना

पितर है बहाना, देवकार्य में लगे साधकों, प्रकृति प्रेमी जीवों को है बचाना

मानव एवं पशु पक्षियों, बनस्पतियों का परस्पर सहचर्य का सम्बंध है। एक के बिना दूसरे का अस्तित्व असम्भव है। प्राणि जगत को स्वस्थ सबल रखने में बृक्ष बनस्पतियों का महत्वपूर्ण योगदान है। मनुष्य हर सम्भव प्राणि व बनस्पति जगत को संरक्षित एवं पोषित करने का दायित्व निभाता भी है, लेकिन यह परम्परा अनवरत चलती रहे और विशेषकर उन प्राणियों के लिए जो मनुष्य व प्रकृति के लिए अधिक हितकर हैं, उनकी विशेष जरूरत के समय मनुष्य उनके आहार पोषण आदि का दायित्व उठाता रहे, इसके लिए हमारे शास्त्रों एवं ऋषि परम्परा में पितरों, पूर्वजों, देवताओं की प्रसन्नता के नाम पर विशेष धार्मिक आयोजनों , कर्मकाण्डों आदि से जुड़ने की मान्यतायें-परम्परायें स्थापित की गयीं और उनसे भावनात्मक स्तर तक आम जनमानस को जोड़ा गया। इसी परम्परा में आता है श्राद्धपक्ष और कुल पितरों का पिंडदान और तर्पण।

पितृ ऋण, देव ऋण एवं ऋषि ऋण

भारतीय सनातन धार्मिक मान्यता अनुसार मानव जीवन पर पितृ ऋण, देव ऋण एवं ऋषि ऋण तीन प्रमुख ऋण बताये गये हैं। पितृपक्ष में उन्हीं पितरों के प्रति श्रद्धा-समर्पण प्रदर्शित करने का विधान है। प्रत्येक वर्ष 15 दिन के लिए एक विशेष समयावधि आती है, जिसे पितर पक्ष कहते हैं। इस काल में हिन्दू धर्म से जुडे़ परिवार अपने उन सगे संबंधियों, जो इस धरा पर अब नहीं हैं, उनके निमित्त श्राद्ध, पिंडदान व तर्पण आदि करके पितृ ऋण से मुक्ति पाने और पितरों के आत्मा को भी इन कृत्यों से तृप्ति व मुक्ति का प्रयास करते हैं। ब्रह्म वैवर्त पुराण में देवताओं की प्रसन्नता पाने के लिए पितरों व पूर्वजों की प्रसन्नता आवश्यक बताई गयी है। इसीलिए भारतीय सनातन परम्परा में पितरों की शांति-तृप्ति एवं प्रसन्नता के लिए प्रत्येक वर्ष की भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा से आश्विन कृष्ण अमावस्या तक की अवधि पितृपक्ष के श्राद्ध-तर्पण-पिण्डदान आदि के लिए समर्पित है।

पुण्यतिथि मनाने एवं श्राद्ध-तर्पण का विधान

भगवान श्रीराम ने स्वयं अपने पिता दशरथ का श्राद्ध-तर्पण पुष्कर तीर्थ के ब्रह्मकुण्ड में किया था। इससे स्पष्ट है कि मरने के बाद भी पितर रूप में मृत आत्माओं का अस्तित्व बरकरार रहता है और इसीलिए भारतीय सनातन परम्परा में पितरों की पुण्यतिथि मनाने एवं श्राद्ध-तर्पण का विधान है।

विद्वानगण पितरों को सूक्ष्म शरीरधारी आत्माओं के नाम से पुकारते हैं। मृतक आत्माओं के संदर्भ में विशेष शोध से स्पष्ट हुआ है कि ‘‘मनुष्य जीवित अवस्था में जिस व्यवहार-स्वभाव का आदी होता है, उसका शरीर छूटने के बाद भी वह आत्मा उन्हीं प्रवृत्तियों में जकड़ी रहती है।’’ भगवदगीता में भगवान श्रीकृष्ण अध्याय 15 श्लोक 7 में भी यही बात कहते हैं कि-

ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः।

                मनःषष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति।।

अर्थात् परमात्मा का ही सनातन अंश आत्मा जीव रूप में स्थित है। देहत्याग के समय आत्मा उस जीव से जुड़ी पांचों इन्द्रियों तथा मन को अपने में समाहित करके अर्थात जीव के सूक्ष्म प्रवृत्ति सहित इंद्रियों को अपने साथ एकत्रित करके शरीर से बाहर निकलता है।

कठोपनिषद, गरुड़ आदि पुराणों में वर्णन है कि जीव आत्मा मृत्यु के बाद यमलोक या पितृलोक जाती है। पितर पक्ष में सूर्य की ही अमा नाम की विशेष किरण का तिथि विशेष पर चन्द्रमा में भ्रमण होता है, तब पितर धरती पर आते हैं। इस अवधि में किये गये श्राद्ध से पितरों को तृप्ति मिलती है। चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण, अमावस्या, संक्रांतिकाल में भी पितरों के निमित्त श्राद्ध-तर्पण, दान-पुण्य का विधान बताया गया है। चूंकि पितर सूक्ष्म शरीरधारी अर्थात अपने सूक्ष्म संस्कारगत प्रवृत्तियों के रूप में स्थित होते हैं, इसलिए पितरों की तृप्ति अन्नकणों के सार अर्थात अÂ की गंध, रस, ऊष्मा तत्व से होती है। पितर पक्ष को श्राद्ध पक्ष कहने के पीछे भी यही संदेश है कि पितरों के निमित्त उनके संबंधियों द्वारा किये गये दान, पुण्य, तर्पण, पिंडदान, जल अर्पण, श्राद्ध आदि के साथ इस कृत्य को करने वालों की भाव-श्रद्धा पितरों को स्वीकार्य है और पितर इसी से संतुष्ट होते हैं। तब श्राद्ध ग्रहण करके पितर श्राद्धकर्ता को आशीष-वरदान देते हैं। चूंकि पितर भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ बिना कहे जानते हैं, इसलिए पितर के निमित्त श्राद्ध आदि करने वालों को हर्षित-पुलकित, सौभाग्यशाली बनते देखा जाता है।

सुख-शांति-सौभाग्य जगाना

 

विष्णु पुराण में वर्णन है कि कर्म विधान के तहत मृत्यु के बाद मानव देह से निकली आत्मा को कभी तुरंत अथवा कभी लम्बी अवधि के बाद नया शरीर मिलता है। ऐसी स्थित में आत्मा वायु रूपी शरीर में विचरण करती रहती है। यह पिंडदान-तर्पण करने से आत्मा की भटकन रुकती है तथा वह आत्मा शरीर रूपी पिंड में बंधती है। इसके अलावा भी किसी मृत पूर्वज को अन्न से जबकि पशु योनि पाने वाली आत्माओं को घास-तृण से, सर्प आदि योनियां पाने वाली आत्माओं को वायु और यक्ष योनियों वाली आत्मा को रस-जल आदि पदार्थों द्वारा श्राद्ध अर्पित करने से तृप्ति प्राप्ति होती है।

पंचबलि

भारतीय धर्मग्रंथों के अनुसार मनुष्य द्वारा ऐसे परिवारजन, पिता-माता, अन्य संबंधी आदि सभी जिन्होंने व्यक्ति को जीवन धारण करने, उसके विकास में सहयोग दिया और इस धरा पर अब नहीं है, उन सभी पितरों के प्रति मन, कर्म एवं वाणी की शुद्धता के साथ तर्पण, पिंडदान, ब्रह्मभोज देने, जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों को भोजन कराने, निर्धनों, गुरुकुल के ब्रह्मचारियों, आचार्यों, वृद्धजनों, गौशालाओं में दान देते हुए पितरों को स्मरण करने, श्रद्धा व्यक्त करने से उन्हें शांति मिलती है तथा इस निमित्त श्राद्ध-तर्पण करने वाले व उनके परिवारी जनों के सुख-सौभाग्य के द्वारा खुलते हैं। इस अवसर पर पितरों के निमित्त गाय, कुत्ता, चींटी, कौवा और देवताओं अर्थात समाज को ऊंचा उठाने के कार्य में लगे लोगों के लिए अंश अर्पण करने का भी विधान है। जिसे पंचबलि कहते हैं।

श्राद्ध पक्ष में तर्पण आदि के साथ पंचबलि के तहत प्रथम अंश गाय को इसलिए अर्पित किया जाता है, क्योंकि गाय का मानव, प्रकृति एवं पर्यावरण सभी के पोषण में सर्वाधिक भूमिका है। कुत्ता मनुष्य का संरक्षक भी है, चींटी का प्रकृति की हलचलो को मनुष्य तक पहुंचाने में सर्वाधिक भूमिका रहती है। एक शोध के अनुसार कौवा का वृक्षारोपण व पर्यावरण संवर्धन में सर्वाधिक योगदान है। सर्वे से ज्ञात हुआ कि श्राद्धपक्ष के दौरान खेत से लेकर घरों की दहलीज तक चारों ओर धरती पानी से भर जाती है। यह दौर पशु पक्षियों के लिए सर्वाधिक आहार संकट का समय होता है। सामान्यतः जंगलों-वनों में शाक पात तक बाढ़, पानी के चलते नष्ट हो चुके होते हैं। ऐसे समय में इन जीवों के संरक्षण पोषण की जरूरत होती है, यह जिम्मेदारी हमारे ऋषियों ने हर मानव को पितर के बहाने हम सबको सौंप रखी है। जिससे समाज एवं पर्यावरण के लिए अत्यधिक उपयोगी ये जीव अपने जीवन को संरक्षित पोषित कर सकें।

इसके अतिरिक्त देव कार्य में लगे व्यक्तियों के लिए भी यही वह चतुर्मास का समय होता है, जब वे अपना सम्पूर्ण समय लोक कल्याणकारी कार्यों, ईश्वर चिंतन-भजन-भक्ति-साधना मे लगाते हैं, अतः इनके कार्यों को पोषण की व्यवस्था जुटाने में हर व्यक्ति को योगदान देना चाहिए। पितर पक्ष का यह काल इन सबके पोषण-संवर्धन-संरक्षण में सहायक बनता है। अतः हम सभी इस पितर पक्ष के बहाने देवकार्य में लगे साधकों, प्रकृति उपासना में लगे जीवों का पोषण संवर्धन करें, पितरों का आशीर्वाद पायें। घर-परिवार में सुख-सौभाग्य का अवसर पायें।

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